माता सरस्वती और जगतपिता ब्रम्हा पिता -पुत्री हैं!

आक्षेप--माता सरस्वती और जगतपिता ब्रम्हा पिता -पुत्री हैं!
फिर पत्नी क्यों बनाया ब्रह्मा ने सरस्वती को?

खण्डन--भागवत महापुराण में लिखा हुआ है कि ब्रह्मा जी अपनी पुत्री सरस्वती पर कामासक्त हो गये थे!

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।

शब्दार्थ

वाचं–सरस्वती
दुहितरं–पुत्री को जो
तन्वीं –सूक्ष्म अंग वाली थीं
अकामां –कामभावशून्य होने पर भी
मनः –मन को
हरतीं –आकर्षित करने वाली को
स्वयम्भू –ब्रह्मा जी ने
सकामः –कामभाव से ग्रस्त होकर
चकमे –चाहा
क्षत्तः –हे विदुर जी !
इति –ऐसा
नः -हमने
श्रुतं –सुना है!

इस अर्थ की प्रसिद्धि इतनी हुई कि साधारण लोग क्या विद्वान भी इसे सत्य मानने लगे!

किन्तु यह अर्थ स्वयं भागवत के पौर्वापर्य तथा पुराणान्तर का अनुशीलन करने पर आपातरमणीय सिद्ध होता है!

इसमें निम्नलिखित कारण हैं!

सरस्वती जी ब्रह्मा जी की पुत्री रूप में प्रकट हुईं!
ऐसा कहीं उल्लेख नही है!
भागवत में मानसी सृष्टि के उल्लेख में सनकादि से लेकर मरीचि आदि 10 पुत्रों का उल्लेख है!
पर सरस्वती जी का नहीं!
फिर ये ब्रह्मा जी की पुत्री कैसे हुईं ?

दूसरी बात यह कि चतुरानन ने स्वयं कहा है कि “मेरी इन्द्रियां कभी भी कुमार्ग में नहीं जाती हैं!
” न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे”

भागवत,यदि भगवती सरस्वती इनकी पुत्री होतीं तो उनके प्रति कामचेष्टा क्या कुमार्गगामिता नही होगी?

तीसरी बात यह कि “चतुःश्लोकी भागवत” का ब्रह्मा जी को उपदेश करने के बाद स्वयं भगवान् ने इनसे कहा है! कि “आप विविध कल्पों में जो भी सृष्टियां करोगे पर उसमें मोहित नहीं होगे!
"एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ”(भागवत,3/12/36,)
अतः भगवान् विष्णु और ब्रह्मा जी इन दोनों के वचनों से विरोध होने से तथा सरस्वती जी का ब्रह्माजी पुत्री रूप में कहीं उल्लेख न होने के कारण पूर्वोक्त “सरस्वती पुत्री को कामभाव से चाहा ” ऐसा अर्थ करना सर्वथा अप्रामाणिक है!

सरस्वती जी का ब्रह्मा जी की पत्नी होने में प्रमाण ब्रह्मा और भगवान कृष्ण आकर्षण का विषय था और जब वह परीक्षण किया!

“इतीरीशेऽतर्क्ये–(भागवत / -10/13/57)

इस श्लोकांश में “इरेशे ” की व्याख्या सर्वमान्य टीकाकार श्रीधर स्वामी लिखते हैं–

"इरा सरस्वती तस्या ईशे ब्रह्मणि।

अर्थ-इरा–सरस्वती
तस्याः -उनके
इशे –पति
ब्रह्मणि –ब्रह्मा जी में!

अर्थात् साक्षात् सरस्वती के स्वामी ब्रह्मा भी भगवान् के विषय में मोहित हो सकते हैं तो हम जैसे तुच्छ प्राणियों की क्या बिसात!

श्रीधर स्वामी के द्वारा किये गये “इरा –सरस्वती” इस अर्थ में महामहोपाध्याय वंशीधर जी धरणिकोष का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं –

“इरा सरस्वतीमद्यजलकामप्रदेषु च”

यहां कोषकार “इरा” शब्द के अर्थ में “सरस्वती जी का नाम सर्वप्रथम लिये हैं !
अतः सरस्वती जी ब्रह्मा जी की पत्नी ही हैं!
#पुत्री नहीं!

पद्मपुराण में स्पष्टतया ब्रह्मा जी पत्नीरूप में सावित्री के साथ सरस्वती का उल्लेख और उनके बीच शाप आदि की भी चर्चा है।

"ब्रह्मणः सरस्वती विष्णोर्लक्ष्मी रुद्रस्य गौरी पत्नीत्यौत्सर्गिकीरीतिरिति।"

महापण्डित नागेश भट्ट जी “सप्तसती स्तोत्रपाठ के निर्णय ” में लिखते हैं!
कि “ब्रह्मा जी की सरस्वती,भगवान विष्णु की लक्ष्मी तथा भगवान् शिव की गौरी पत्नी हैं!

यह सामान्य रीति है!

अर्थात् इस सर्वमान्य तथ्य में सन्देह मत करना!

पद्मपुराण में इन्हें “स्वरा” शब्द से अभिहित किया गया है!
और प्राधानिक रहस्य में भी ब्रह्मा जी के साथ इनका स्वरा शब्द से उल्लेख है!
“स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्”

इन प्रबल प्रमाणों से इस बात की पुष्टि हुई कि “भगवती सरस्वती साक्षात् ब्रह्मा जी की पत्नी हैं!

अतः जिस “वाचं दुहितरं –” श्लोक से यह भ्रान्ति फैली हुई है कि ब्रह्मा जी अपनी पुत्री सरस्वती पर कामाक्रान्त हो गये!

वह सर्वथा अप्रामाणिक है!

>>>>>>>>>भ्रान्ति का कारण<<<<<<<<<

उस श्लोक में “दुहितरं” शब्द के प्रसिद्ध अर्थ “पुत्री को” लेकर यह भ्रान्ति फैली है!

“भागवत” विद्वानों के विद्यापरीक्षा की कसौटी है “विद्यावतां भागवते परीक्षा” पंक्ति बड़ी प्रसिद्ध है ।

अतः “दुहिता” शब्द किन किन अर्थों में प्रयुक्त होता है –इसे हम सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं–

“सुतानार्योऽथ गवि दुहिता प्रोच्यते बुधैः”

अर्थात-वंशीधरी ,पुत्री ,नारी और गौ में दुहिता शब्द का प्रयोग होता है!
ऐसा विद्वान् कहते हैं !

अब

“वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।।
(”भागवत,3/12/28)

श्लोक में आये “दुहितरं”शब्द का अर्थ “पुत्रीं” किया जाय या नारीं (पत्नी स्वरूपा नारी?

ऐसा संशय होने पर चूंकि “सरस्वती जी”चतुरानन की पत्नी सप्रमाण सिद्ध हो चुकी हैं!

अतः “पुत्री ” अर्थ करना मात्र प्रज्ञापराध ही है!
“पत्नीरूप नारी”अर्थ ही लेना चाहिए!

इसी में पूर्व प्रदर्शित सभी प्रस्तुत शास्त्रों की सहमति और भगवान् विष्णु तथा ब्रह्मा जी के वचनों से अविरोध होगा!

इसी पद्धति का अनुसरण “प्रजापतिः स्वां दुहितरमगमत्” इस श्रुति के अर्थ में भी करना चाहिए!

फलितार्थ यह कि “चतुर चतुरानन अपनी पुत्री के प्रति कामभाव सम्बन्धी कोई चेष्टा नही किये”

फिर उनके पुत्र मरीचि आदि ने उस कार्य को “अधर्म” कहकर मना क्यों किया ?

क्योंकि पत्नी को सकामभाव से चाहना कोई अधर्म तो है नही!

समाधान — एकान्त में तो अधर्म नही है पर जिसके महाज्ञानी साक्षात् ब्रह्मर्षि 10 पुत्र सामने हों वहां स्वयं एक लोकस्रष्टा उस पर भी एक जगद्गुरु होकर सबके समक्ष अपनी पत्नी के प्रति कामचेष्टा करे!

यह महान् अधर्म है !
साक्षात् पशुता है ।

और पशु उसे कहते हैं जो धर्म से रहित हो –"धर्मेणहीनः पशुभिः समानः।"

अतः 10 ब्रह्मर्षियों ने उन्हे रोंका!

तत्पश्चात् ब्रह्मा जी द्वारा उस शरीर को त्यागने की बात भी वहां लिखी हुई है–"प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा"–3/12/33,

यदि पुत्रों के समक्ष वह कामचेष्टा ब्रह्मा जी की दृष्टि में महापाप नही होती तो “देह त्याग “की बात क्यों आती ?

इससे गृहस्थों को शिक्षा भी दी गयी है!
वस्तुतः ब्रह्मा जी की आयु 2 परार्द्ध है!

अतः उस कुत्सित भाव का त्याग ही मनीषियों ने माना है!

निर्गलितार्थ यह कि “ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री के साथ कोई कामचेष्टा नही की और न सरस्वती जी उनकी पुत्री ही हैं!

बोलो सत्य सनातन धर्म की जय!

जय श्री राम
जय माँ सरस्वती

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