निमि वंश: माता सीता का वंश

भगवान राम के वंशजो से सभी परिचित हैं। लेकिन बहुत कम लोगो को निमि वंश के बारे में जानकारी है जिसमे माता सीता का जन्म हुआ था। निमि वंश के क्षत्रिय आज भी बिहार राज्य के मिथिला और उसके आसपास के क्षेत्र में मिलते हैं।

गौत्र- वशिष्ठ, कश्यप, वत्स
प्रवर- वशिष्ठ, अत्रि, सांकृति
वेद- यजुर्वेद
कुलदेवी- चंडिका
नदी- कोसी
प्राचीन गद्दी- मिथिला

निमिवंश वैवस्वत मनु की एक संतान निमि के वंशज हैं। महाराजा निमि के ज्येष्ठ पुत्र का नाम मिथि था। मिथि ने अपने नाम से मिथिला नगरी बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। मिथि पराक्रमी शासक होने के साथ साथ बहुत बड़े विद्वान् भी थे। इस वजह से उनकी उपाधि जनक पड़ी और उनके बाद मिथिला के सभी शासको की उपाधि जनक हो गई। मिथिला को जनकपुरी भी कहते हैँ जो अब नेपाल में पड़ता है। महाराज निमि नेपाल के भी शाशक थे। कहा जाता है इसीलिए पहले नेपाल को निमिपाल कहते थे, जो कालांतर में नेपाल हो गया।

निमि की 49वीं पीढ़ी में सीरध्वज नामक राजा हुए। मिथि के सारे वंशज जनक कहलाते हैं इसलिये सीरध्वज को भी जनक कहते हैं। इनकी दो पुत्रियां थी- सीता और उर्मिला जिनका विवाह क्रमशः भगवान राम और लक्ष्मण से हुआ था। उनके भाई का नाम कुशध्वज था जिनकी पुत्री मांडवी और श्रुति कीर्ति का विवाह क्रमशः भरत और शत्रुघ्नजी से हुआ।

निमि वंश के क्षत्रिय राजपूत आज भी बिहार प्रान्त के मिथिला प्रदेश और उसके आसपास के क्षेत्र में मिलते हैं।

निमि वंश की शाखाएँ-

निमुड़ी वंश- महाराज निमि के ज्येष्ठ पुत्र मिथि के वंशज निमि कहलाते हैं जबकि उनके छोटे भाई के वंशज निमूड़ी कहलाते हैं। इनका गोत्र कश्यप और कुलदेवी प्रभावती और नदी कोसी है। निमुड़ी वंश के क्षत्रिय भी बिहार प्रान्त में मिलते हैं।

निशान वंश- इस वंश के क्षत्रिय भी आज बिहार के मुजफ्फरपुर, गया, पटना, शाहाबाद आदि क्षेत्रो में मिलते हैँ।इनका गोत्र वत्स और कुलदेवी भगवती हैं।
संदर्भ-----1-देवीसिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 323-324
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आदर्श सिंह

पुराणों के साथ साथ उप-पुराण भी होते हैं, और ऐसा ही एक उप-पुराण, “कालिका-पुराण” है। इसके मुताबिक नरकासुर नाम का राक्षस मिथिला के क्षेत्र से आया था और अंतिम किरात राजा घटकासुर (जो दानव कुल से था) को मारकर प्रागज्योतिषपुर की स्थापना करता है। कामरूप पर शासन करने वाले तीन पुराने राजवंशो को उसका ही वंशज माना जाता है इसलिए कामरूप और असम के इतिहास में नरकासुर महत्वपूर्ण हो जाता है। कुछ ग्रंथों के हिसाब से वो हिरण्याक्ष का पुत्र था, लेकिन उसके पिता के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं आती।

वो हमेशा से दुष्ट प्रवृति का भी नहीं था, वो बाणासुर की संगती में असुर हो गया था। उसकी माता का भूदेवी होना पक्का है। शायद ये समाज के मातृसत्तात्मक होने को भी दर्शाता हो। या हो सकता है कि उस काल में सत्ता शोषण का साधन ना होती हो, इसलिए पुरुष की थी या स्त्री की, ये गौण होता हो। ये जरूर है कि नरकासुर की कहानियों में थोड़े ही समय बाद उसके लम्पट (कॉमरेड टाइप) होने का जरूर पता चल जाता है। कहते हैं, एक बार ये देवी कामख्या से ही विवाह करने के पीछे पड़ गया। देवी ने शर्त रखी कि अगर रात भर में नीलांचल पहाड़ी के नीचे से ऊपर मंदिर तक की सीढ़ियाँ बना डालो तो मैं तुमसे विवाह कर लूं।

नरकासुर फ़ौरन इस काम में जुट गया और जब देवी को लगा कि ये तो सचमुच सीढ़ी सुबह होने से पहले पूरी कर डालेगा तो उन्होंने एक मुर्गे को बांग देने का आदेश दिया। मुर्गा कुकडू कँे कर उठा और नरकासुर ने सोचा शर्त के मुताबिक मुर्गे के बांग देने से पहले सीढ़ी पूरी करनी थी ! तो वो आधे में ही, सीढ़ी बनाना बंद कर के चला गया। बाद में जब नरकासुर को पता चला तो उसने मुर्गे को खदेड़ के मार डाला। जिस जगह बेचारा मुर्गा मारा गया उसे दर्रांग जिले का कुक्कूड़काता माना जाता है। अधूरी सीढ़ी को अब मेखेलौजा पथ बुलाते हैं।

नरकासुर मथुरा के राजा कंस का मित्र भी था और विदर्भ (जहाँ की रुक्मिणी थी) की राजकुमारी माया से इसका विवाह हुआ था। महाभारत के काल में जो बाली-सुग्रीव के इलाके में वानर राज करते थे उनका राजा द्विविध भी इसका मित्र था। हयग्रीव और सुंद जैसे राक्षसों के साथ मिलकर इसने इंद्र को हरा दिया था और वरुण का छाता (छत्र) और देवमाता अदिति के कुंडल भी छीन लाया था। बाणासुर की संगती में जब इसके अत्याचार बढ़ने लगे तो वशिष्ठ (जिनका आश्रम अब भी असम में गौहाटी के पास माना जाता है) ने उसे विष्णु के हाथों मारे जाने का शाप दे दिया था।

यहाँ कठिनाई बस इतनी थी कि नरकासुर की सेना से तभी जीता जा सकता था, जब आक्रमण करने वाली (स्त्री) उसकी माता हो। विष्णु अवतार श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को भूदेवी का अवतार माना जाता है। जब उन्हें नरकासुर की करतूतों का पता चला (जिसमें अदिति के कुंडल छीनना और सोलह हजार एक सौ आठ कन्याओं का अपहरण शामिल था) तो क्रुद्ध सत्यभामा ने नरकासुर पर आक्रमण कर दिया। माया से विवाह के समय, विष्णु ने ही नरकासुर को एक रथ भी दिया था, तो कृष्ण के रथ की सारथि भी सत्यभामा बनी। जहाँ से नरकासुर राज करता था वो नागों का क्षेत्र था, तो गरुड़ भी इस युद्ध में शामिल थे।

नरकासुर की ग्यारह अक्षौहणी सेना इस युद्ध में मारी गई। इस सेना का सेनापति मुर नाम का था, और उसी के वध के कारण कृष्ण का एक नाम “मुरारी” भी होता है। नरकासुर से लड़ाई में कृष्ण एक प्रहार से जब बेहोश हो जाते हैं तो सत्यभामा नरकासुर से लड़ने उतर पड़ती है और नरकासुर की छाती में तीर मार गिराती है। अंतः कृष्ण सत्यभामा के संयुक्त प्रयासों से नरकासुर मारा जाता है और कृष्ण उसका सर सुदर्शन चक्र से काट कर उसकी जीभ खंडित कर देते हैं। अगर आपने मशहूर फिल्म “अवतार” देखी होगी, तो उसके अंतिम दृश्य का युद्ध इसी कहानी से प्रेरित है।

अब जब हम नरक निवारण चतुर्दशी का पर्व मन भी चुके तो प्रतीकों से भरी पड़ी इस कहानी में गौर करने लायक और भी चीज़ें हैं। पौराणिक समाज में स्त्री का सम्मान और स्त्री के सैन्य आक्रमण के आदेशों की क्षमता जैसी चीज़ों की तरफ हम ध्यान नहीं दिला रहे। मेरा ध्यान इस तरफ गया कि गोमान्तक नाम से जाना जाने वाला प्रान्त यानि आज का गोवा, कामरूप यानि असम के इलाके से बिलकुल दुसरे कोने में होता है। दोनों भारत के दो छोर हैं। जैसे बाकी भारत रावण दहन का उत्सव मनाता है, वैसे ही गोवा में नरकासुर दहन होता है। इसकी कई प्रतियोगिताएँ भी होती हैं, जिन्हें पर्यटक भी पसंद करते हैं।

हिन्दुओं और विशेषकर ब्राह्मणों की हजारों की संख्या में हत्या करवाने वाले कुख्यात सेंट ज़ेवियर के नाम से जाने जाने वाले इलाके में अब तक नरकासुर दहन की परंपरा का होना सुखद है। गोवा इनक्वीजीशन में हिन्दुओं के ईसाईयों द्वारा बर्बर दमन, लूट और बाद में नेहरु के 47 की आजादी के काल में गोवा की तरफ से आँख मूँद लेने के बाद भी आश्चर्यजनक रूप से हिन्दुओं की परम्पराएं वहां जीवित रह गई। मूर्तियाँ बनाने, मेले से जुड़े व्यापार वगैरह के जरिये अर्थव्यस्था को सुचारू रखने के तरीके मारे जा सकें शायद इसलिए इस्लामिक हमलावर ही डेढ़ मन जनेऊ नहीं जलाते थे, सेंट ज़ेवियर भी अंत समय तक ब्राह्मणों को क़त्ल करवाने, जिन्दा जलाने में प्रयासरत रहा।

यहाँ देखने लायक ये भी है कि हिन्दुओं को जो चीज़ें आसानी से समझ में आती हैं, उन सनातन परम्पराओं को समझने में विदेशियों को दिक्कत होती है। कई बार ऐसे सिद्धांत हिन्दुओं में आम हैं जिनका किसी और समाज ने सोचा ही नहीं ! जैसे “अहिंसा” का जो मतलब हमें समझ आता है, उसे अंग्रेजी में सिर्फ नॉन-वायलेंस कर देने से भी काम नहीं चलता। अरबी-फारसी में तो इसके आस पास का शब्द ढूंढना टेढ़ी खीर है ही, उर्दू में भी शायद “अहिंसा” नहीं होता। काफी कुछ वैसे ही जैसे हिन्दुओं में सनातन “सर्व धर्म समभाव” है, जबकि आजकल आयातित व्यवस्थाएं, “सहिष्णुता” सिखाने की कोशिश करती हैं।

आप किसी चीज़ के प्रति सहनशील, सहिष्णु, तब होते हैं, जब आपको वो चीज़ नापसंद हो, किसी वजह से बुरी लग रही हो। जैसे मौसम की सर्दी-गर्मी सहते हैं, बड़ों की डांट बुरी लगने पर भी सहन करते हैं। जिसे आप ओछा-नीचा मानते हैं उसे सहन या टोलरेट किया जाता है। ये बराबरी का दर्जा नहीं, नीचा दिखाना है। समानता के सिद्धांत “सर्व धर्म समभाव” से ये कहीं नीचे है। आंबेडकर जैसे कई नेता ऐसे ही समानता के अधिकार के लिए लगातार संघर्ष करते रहे और कुछ मुट्ठी भर आयातित विचारधारा के लोग फिर से सभी धर्मों में “समानता” के बदले पहले ही दूसरों को ओछा मानकर, “सेकुलरिज्म” का बर्दाश्त करना सिखाना चाहते हैं।

ऐसे में सवाल ये भी है कि नरकासुर की तो जीभ काट कर जला आये, अपने अन्दर के इस “सेकुलरिज्म” नाम के नरकासुर की जीभ काटकर उसे कब मारेंगे ? अपने अन्दर से धर्मनिरपेक्षता को भी मारिये, सभी धर्मों को अपने धर्म के समान अधिकार दीजिये।
✍🏻
आनन्द कुमार

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