महाशिवरात्रि की कहानी

आपके पूर्वानुमान पर, आपके पूर्वाग्रहों पर कोई चीज़ सही सही ना बैठे तो बड़ी समस्या होती है | इस से नैरेटिव बिल्ड करने में दिक्कत हो जाती है | आप ये नहीं कह सकते कि “मैंने तो पहले ही कहा था” तो आपके अहंकार को भी चोट पहुँचती है | ज्ञानी सिद्ध होने में दिक्कत हो जाती है | हिन्दुओं के बारे में पूर्वाग्रहियों को यही सबसे बड़ी दिक्कत रही | उनके रिलिजन के कांसेप्ट पर हम फिट नहीं आते | कई बार हमारे बारे में चुप्पी साधनी पड़ती है | महाशिवरात्रि की कहानी के साथ भी ऐसा ही है |

यही वजह है कि जैसे होलिका दहन का किस्सा सुनाया जाता है वैसे शिवरात्रि के लिए नैरेटिव बिल्ड करने की कोशिश कम होती है | ऐसे में कोशिश की जाती है कि चुप रहकर शिवरात्रि की कहानी को भुला देने की कोशिश की जाए | इस त्यौहार से जुडी कहानी छोटी सी है, और एक व्याध यानि बहेलिये या शिकारी की कहानी है | चित्रभानु नाम के इस शिकारी ने कुछ कर्ज ले रखा होता है जिसे ना चुकाने पर साहूकार उसे बंद कर देता है | संयोग से उसी दिन शिवरात्रि थी और बंद पड़ा चित्रभानु बाहर धार्मिक चर्चा कर रहे लोगों को सुन रहा होता है | शाम में जब उसे खोला गया तो वो कर्ज चुकाने का वादा करके छूटता है |
अब शिकारी था तो वो जंगल में जाकर शिकार के लिए झील के पास एक मचान बनाना शुरू करता है | इस बार किस्मत से वो बिल्व वृक्ष यानि बेल के पेड़ पर मचान बना रहा होता है जो कि शिव का प्रसाद है | मचान बनाने के लिए तोड़ी गई पत्तियां नीचे शिवलिंग पर गिर रही होती हैं | अब हिन्दुओं की कहानी है तो यहाँ अन्य जीव जंतुओं को भी मनुष्यों जैसी ही भावना, और बात-चीत में समर्थ दर्शाया जाता है | इसलिए झील पे जो पहली हिरणी आती है वो भी शिकारी को तीर चढ़ाते देख उस से बात करने लगती है |

वो हिरणी बताती है कि वो गर्भवती है इसलिए उसे अभी मारना उचित नहीं | बच्चे के जन्म तक उसे जीवनदान दिया जाना चाहिए | हिरणी वादा करती है कि प्रसव के बाद वो शिकारी के पास लौट आएगी | अब अकारण की गई भ्रूणहत्या से ठीक एक स्तर नीचे का पाप गर्भवती को मारने पर होता तो शिकारी रुक जाता है | थोड़ी देर और बीती तो दूसरी हिरणी, हिरण के बच्चों के साथ आती है | शिकारी फिर तीर चढ़ाता है लेकिन ये हिरणी भी उसे देख लेती है और वो कहती है कि उसे बच्चों को पिता के पास छोड़ कर आने का अवसर दिया जाये |

शिकारी कहता है कि वो मूर्ख नहीं कि हाथ आये शिकार को जाने दे, और हिरणी कहती है बच्चों को घर से दूर अनाथ करने का पाप उसपर आएगा | शिकारी फिर मान जाता है और हिरणी का बच्चों को घर छोड़ कर आने का वादा मानकर उसे जाने देता है | थोड़ी देर में तीसरी हिरणी आती है और वो भी शिकारी को देखकर उससे प्राणदान माँगना शुरू करती है | उसका कहना था कि उसका ऋतुकाल अभी समाप्त हुआ है इसलिए उसे पति से मिल आने का समय दिया जाए | शिकारी को पता नहीं क्या सूझा था, वो अपने बच्चों के भूखे होने वगैरह का सोचता भी है मगर फिर से हिरणी को जाने देता है |

अब तक रात का चौथा पहर हो गया था | सुबह होने ही वाली थी कि अब एक हिरण वहां पहुंचा | अब जब शिकारी तीर चढ़ाता है तो हिरण बोला कि अगर शिकारी ने तीन हिरणियों और उसके बच्चों को मार डाला है तो उसके जीने का भी कोई ख़ास मकसद नहीं बचा | इसलिए शिकारी तीर चला दे ! चित्रभानु बताता है कि तीन हिरणियां वहां आई तो थी मगर उन सब के लौट आने के वादे पर उसने सबको जाने दिया है | अब हिरण कहता है कि अगर उसे मार दिया तो तीनों हिरणियां अपना वादा तो पूरा कर नहीं पाएंगी, क्योंकि पति तो वो है, उसी से मिलने गई हैं तीनों !

जैसा कि अभ्यास से होता है, वैसे ही, बार बार भलमनसाहत दिखाने से शायद आम हिन्दुओं टाइप, शिकारी चित्रभानु को भी दया दिखाने की आदत पड़ गई थी | अब वो हिरण को भी हिरणियों से मिल कर वापिस आने की इजाजत दे देता है | अब चारों शिकारों को जाने देने वाला शिकारी सोच ही रहा होता है कि क्या करे इतने में हिरण परिवार सहित उपस्थित हो जाता है | हिन्दुओं वाले हिरण थे तो मरने की स्थिति की स्थिति में भी वादा पूरा करने चले आये | पारधी चित्रभानु भी हिन्दू ही था तो वो ऐसा होता देख कर पश्चाताप और ग्लानी से भरा अपने मचान से नीचे उतर आया |

उधर रात भर पेड़ से बेलपत्र गिरने के कारण शिव जी सोच रहे थे ये घने जंगल में पूजा कौन कर रहा है ? तो उन्होंने भी शिकारी पर नजर बना रखी थी ! शिकारी कहता नहीं मार रहा, और हिरण परिवार कहता वादा पूरा होना चाहिए, इसकी बहस हो ही रही थी कि सुबह सुबह भगवान शिव भी पूजा का फल देने प्रकट हुए | हिरण परिवार को कठिनतम परिस्थिति में भी अपना किया वादा निभाने के लिए मोक्ष मिला | शिकारी को हिंसा के त्याग और पश्चाताप के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हुई | ये ही कहानी थोड़े बहुत अंतर के साथ सभी हिन्दू शिवरात्रि की कथा के रूप में जानते हैं |

गुजरात का सोमनाथ हो, या महाकाल उज्जैन, काशी विश्वनाथ का मंदिर हो या फिर त्रयम्बकेश्वर नासिक, बैजनाथ बिहार का मंदिर हो या सुदूर रामेश्वरम, दुर्गम हिमालय का केदारनाथ हो, नेपाल का पशुपतिनाथ या फिर मद्रास का शैल मल्लिकार्जुन हर जगह यही कथा सुनाई जायेगी | ग्रंथों से कम वास्ता रखने वाले अघोरी हों, या भयानक रूप से शिक्षित नागा सन्यासी, सब इसी कथा का श्रवन करेंगे | ये कहानी विविधता में एकता का उदाहरण भी है | बहेलिये की कहानी है, सुनने वाले ब्राह्मण भी होंगे, तो मोक्ष के अधिकार पर जात-पात के बंधन की गुंजाइश भी नहीं रहती |

हिरणियों या हिरण के शिकार से उनके बच्चों यानि अगली पीढ़ी पर असर ना हो ये भी याद दिलाया गया है तो आज के सस्टेनेबल डेवलपमेंट की भी कहानी है | चित्रभानु पेड़ पर बैठा अनजाने ही पूजा कर बैठा था, तो मंदिरों में प्रवेश के लिय ऊँची-नीची जाति की बात करने वालों को भी सुननी चाहिए | हां नैरेटिव बिल्ड करने, साधारण कहानियों में वर्ण भेद, स्त्री विरोध या हाशिये पर के वर्ग का शोषण ढूँढने की कहानी खोज रहे लोगों को थोड़ी निराशा होगी | वो शायद इसे ना पढ़ना-सुनना चाहें | चुप्पी साधकर वो इसे भुलाने या इग्नोर करने की कोशिश जारी रख सकते हैं |

बाकी शिवरात्रि है तो “भक्तों” के साथ साथ “विभक्तों” अर्थात बंटे हुए लोगों को भी #शुभकामनाएं !

ये कहानी लम्बी सी है, और काफी भाव के साथ कथावाचक इसे बांचते सुनाई दे जायेंगे। मोटे तौर पर ये शिवरात्रि से जुड़ी कहानी है जो भक्तों को भाव विभोर करने के लिए सुनाई जाती है। इसे सुनकर आस्था कितनी जागती है या लोग कितने भाव-विह्वल होते हैं ये हमारा मसला नहीं।

हम इस कहानी से बस इतना समझते हैं कि भगवान, भगवान होते हैं, कोई राक्षस नहीं होते। छोटी मोटी सी कोई पूजा में पाठ में गलती हो भी गई तो वो आपको खा जाने नहीं कूद पड़ेंगे। गलतियाँ अनदेखी करके आपके सिर्फ अच्छे काम जोड़े जायेंगे। “परमहंस” के स्तर पर पहुंचे साधुओं तक भी बदबू जैसी चीज़ें नहीं पहुँचती, वो सिर्फ सुगंध महसूस कर पाते हैं तो भगवान तक कमियां कैसे पहुंचेंगी ? पाठ की विधि से आपके पुण्य कम-ज्यादा हो सकते हैं, असर अलग अलग हो सकता है, पाप नहीं हो सकता। हिन्दुओं में अँधेरे का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, रौशनी का ना होना अँधेरा है। आप रौशनी कर सकते हैं अँधेरा नहीं कर सकते।

धर्म का लोप होना अधर्म होता है, आप अलग से अधर्म नहीं कर सकते। परिग्रह बंद करने से अपने आप अपरिग्रह होता है, हिंसा बंद करने पर अपने आप अहिंसा होगी। पुण्य का ना होना पाप होता है, अलग से पाप नहीं किया जा सकता। किसी पुराण-धार्मिक ग्रन्थ के पाठ की पूरी विधि का पालन नहीं किया या जानकारी ही नहीं तो पुण्य थोड़ा सा कम हो सकता है, पाप नहीं हो सकता। पैदा होते ही पापी होने की या अलग से पाप कर लेने की इसाई मानसिकता को हिन्दुओं पर मत थोपिए। 

सही विधि का आश्वासन खुद शंकराचार्य उतर आयें तो भी नहीं दे सकते, और ये सभी ग्रंथों में लिखा होता है कि पूर्ण विधि की जानकारी किसी को नहीं। विधि-विधान के पूरे ना होने पर पाप नहीं लगता, उठाइये और पढ़िए।

ये कहानी शिव पुराण में आती है और शायद जालंधर नाम के असुर की है। ध्यान रहे, असुर बताया गया है राक्षस नहीं था, कम से कम इस कहानी तक तो नहीं। शक्ति-सामर्थ्य में अक्सर असुर देवों यानि सुरों से ऊपर ही होते थे। असुर ने भी थोड़े ही समय में इन्द्रासन कब्ज़ा लिया और जैसा कि आसुरी प्रवृत्ति होती है वैसे ही उसने भी सोचा कि अब मैं सबसे महान हूँ, तो सभी सबसे अच्छी चीज़ों पर मेरा अधिकार है।

इसी मद में असुर पहुंचा कैलाश पर और शिव के साथ पार्वती को देखकर कहा, सबसे सुन्दर स्त्री पर मेरा अधिकार है, तो लाओ इसे मेरे हवाले करो ! आम तौर पर कहा जाता है कि भगवान कभी आपका नुकसान नहीं करते। वो सिर्फ आपकी मति भ्रष्ट कर देते हैं, फिर आप अपने शत्रु स्वयं हैं, भगवान को आपका नुकसान करने की जरूरत नहीं। भगवान शिव ने भी असुर के साथ यही किया।

असुर की भूख को पलटा कर उसपर छोड़ दिया ! भगवान शिव से प्रकट हुई वो प्रचंड क्षुधा रास्ते की सभी चीज़ों को निगलती असुर की ओर बढ़ी तो उसने पहले तो इस शक्ति का अपनी शक्तियों से प्रतिकार करने का प्रयास किया। लेकिन उन सभी प्रतिरोधों को निगलता वो जब असुर को लीलने को हुआ तो बेचारा असुर भागा। यहाँ-वहां कहीं शरण नहीं पाने पर बेचारा असुर अपनी मूर्खता पर पछताता आखिर भगवान शिव की ही शरण में पहुंचा और लगा प्राणों की भीख मांगने।

भगवान शिव ने जैसे ही उसे क्षमा करके सबकुछ निगलते पीछे ही आ रही शक्ति को रुकने कहा तो वो दैवी शक्ति बोली भगवान एक तो मुझे इसे ही खाने के लिए ऐसी भूख बना कर पैदा किया ! अब आप मेरा आहार ही छीन रहे हैं ? मैं अब खाऊंगा क्या ? भगवान ने एक क्षण सोचा और कहा, ऐसा करो स्वयं को ही खा जाओ ! आदेश पाते ही उसने पूँछ की ओर से खुद को खाना शुरू किया और अंत में केवल उसका मुख ही बचा। अक्सर हिन्दुओं के मंदिरों के द्वार पर यही मुख दिखता है।

भगवान शिव ने आदेश पालन के लिए स्वयं को खा लेने की उसकी क्षमता के लिए उसके मुख को ‘कीर्तिमुख’ नाम दिया था। उसे देवताओं से भी ऊपर स्थान मिला था।

कहानियां केवल प्रतीक होती हैं और ये कहानी भी खुद को ‘मैं’ को खा जाने की कहानी है। प्रतीक के माध्यम से ये वही कहा गया है जो काफी बाद के दोहे में ‘जो घर बारे आपना, सो चले हमारे साथ’ में कहा गया है। अपने अहंकार को खा जाने का ये आदेश कई बार कई ग्रंथों में कई साधू देते रहे हैं। ये अहंकार का आभाव सबसे आसानी से छोटे बच्चों में दिखेगा, इसी लिए बच्चों के रूप को शिव के पर्यायवाची की तरह भी इस्तेमाल किया जाना दिख जाएगा। दिगंबर, भोले जैसे नाम इसी लिए इस्तेमाल होते हैं।

इसी बच्चों वाले तरीके का इस्तेमाल कई जाने माने विद्वान अभी हाल में #SanskritAppreciationHour में करते हुए भी दिखे हैं। वो लोग पञ्च-चामर छन्द
में रचित शिवताण्डवस्तोत्र सीखने-सिखाने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे थे। जैसे बच्चे किसी चीज़ को पहचाने, समझने के लिए उसे उल्टा पलटा कर तोड़ कर खोल कर देखने लगते हैं बिलकुल वही इसपर भी इस्तेमाल किया गया था। चर्चा अंग्रेजी में थी तो उनके तरीके को हमने सिर्फ हिंदी में कर देने की कोशिश की है। अगर पञ्च-चामर छन्द फ़ौरन याद ना आये तो बचपन में पढ़ी कविता याद कर लीजिये :

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।
~ जय शंकर प्रसाद
ये चार चरणों का वर्णिका छन्द होता है।

अब शिव ताण्डव का पहला श्लोक:
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।।१।।

‘जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले’ से स्थले का मतलब स्थान, जगह होगा, ‘जल-प्रवाह-पावित’ का अर्थ पवित्र जल का बहना, प्रवाह होगा (शुद्ध, स्वच्छ और पवित्र तीनों अलग अर्थ के शब्द हैं ध्यान रखिये)। ‘जटा-अटवी-गलत्’ यानि जटाओं के वन से बहती हुई, घनी जटाओं की तुलना वन से की गई जो कि अंग्रेजी के simily जैसा अलंकार है। अटवी का सही अर्थ विहार करने योग्य स्थान होता है, जो अट् धातु से बना है, इसी अट् से पर्यटन बनता है जिसका मतलब घूमने देखने के उद्देश्य से कहीं जाना होता है।

यहाँ ‘गलत्’ सन्धि में जल से मिलकर ‘गलज्’ हो जाता है। ये वर्तमान कृदन्त है जो वर्तमान काल में चल रही क्रिया का बोध कराता है। ‘गले ऽवलम्ब्य’ यानि गले से लटकता हुआ, ‘भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्’ भव्य साँपों की माला, और ‘लम्बिताम्’ एक विशेषण है जो माला के लिए इस्तेमाल किया गया है, जैसे हमलोग अभी भी किसी काम के अटके पड़े होने के लिए लटका हुआ या लम्बित कहते हैं। अगले वाक्य में फिर पीछे से ‘अयम्’ यानि ये ‘डमरु’ जो ‘निनादवत्’ अपनी ध्वनि यानि ‘डमड् डमड् डमड् डमड्’ से पहचाना जा रहा है।

अब यहीं ‘निनादवत्’ के अंत में ‘वत्’ आ रहा है लेकिन सन्धि होते ही वो ‘न्निनादवड्डमर्वयं’ हो जाता है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे भागवत गीता एक साथ जोड़ते ही भगवद्गीता हो जाती है, ‘त’ का ‘द’ जैसा हो जाना। अब इसमें जितना एक श्लोक के साथ सिखाया गया है उतने के लिए हमें पांच-छह बार तो किताबें पलटनी ही पड़ेंगी, लेकिन अच्छी चीज़ ये है कि किसी भी समय में अगर आप कुछ सीखना चाहते हैं तो सीख लेना आसान ही है। पहला कदम होता है अहंकार को खा जाना। मैं नहीं जानता ये स्वीकारना मुश्किल काम है, लेकिन नामुमकिन बिलकुल नहीं है।

अंतिम वाक्य के ‘चकार’ का अर्थ वो कर चुके जैसा होगा, क्या किया वो खुद देखने की कोशिश कीजिये। बाकी शिवरात्रि शिव से जुड़ने के लिए योगियों को प्रिय रही है, अपनी उन्नति के साथ-साथ आप ज्ञान को एक पीढ़ी आगे भी बढ़ा रहे होंगे। अगर आप एक स्तोत्र भी सीखते हैं तो ये संयोग भी उत्पन्न होगा। प्रयास कीजिये !

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