#गोवर्धन_पूजा_की_हार्दिक_मंगलमय_शुभकामनाएँ !
#हमारो_कान्हा_गोवर्धन_गिरिधारी
ओ३म्
*🌷श्रीकृष्ण का महान व्यक्तित्व🌷*
*(1) साहस,वीरता एवं निर्भीकता:-*
श्रीकृष्ण आरम्भ से ही साहसी,वीर एवं नीर्भीक थे। उन के बाल्यकाल से ही उनमें ये गुण पाये जाते थे। उनकी बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण घटना है-पूतना का वध। पूतना एक स्त्री थी, जिसके स्तनों में पस थी। जो बच्चा उसके स्तनों का पान करता था, मर जाता था। श्रीकृष्ण ने उसका स्तन मुँह में लेने के स्थान पर उसको दोनों हाथों से भींच दिया। इससे उसकी पस निकल गई। जब उन्होंने उसे मुंह में बलपूर्वक लेकर चूसा तो रक्त का स्राव बड़े वेग से आरम्भ हो गया।पूतना चीखें मार-मारकर वहीं मर गयी।
एक बड़ा बैल जिसका नाम अरिष्टि था, उसे भी मारा। कुछ जंगली गधे, जिनके मुखिया का नाम लोगों ने धेनुक रक्खा था, ग्वाल-बालों को ताड़ के वृक्षों का फल खाने से रोकता था, को अपने साहस से भगा दिया।वृन्दावन में कालिया नाग को मारा था।
कंस के दो पहलवानों, चाणूर और मुष्टिक को मार गिराया। इसके बाद कृष्ण कूदकर कंस के सिंहासन तक पहुंचे। उसके केश पकड़कर उसे भूमि पर गिरा दिया और मार डाला।
रुक्मिणी-हरण के अवसर पर राजाओं को रोकना और रुक्मिणी को लेकर द्वारका आना उनकी वीरता को प्रकट करता है।
राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का वध करना और किसी भी राजा का उनके विरुद्ध न बोलना उनकी वीरता और निर्भीकता का उदाहरण है।
*(2) जनसेना एवं नेतृत्व:*-एक बार वृन्दावन में बहुत वर्षा हुई।वृन्दावन वासी श्रीकृष्ण के पास समस्या के समाधान के लिए आये। श्रीकृष्ण उन सबको लेकर गोवर्धन पर्वत पर पहुँचे। पर्वत की खुदाई कराई गई। वृक्ष गिराये गये। साँप, बिच्छू, चीता आदि जन्तुओं से वन को खाली कराया गया। सारी बस्ती को गायों के गल्लों समेत वहीं आवास करा दिया गया। सात दिन तक वर्षा होती रही, श्रीकृष्ण रात-दिन वहीं डटे रहे। *यही उनका गोवर्धन पर्वत को धारण करना* था।
एक बार गोकुल में भेड़िये आ घुसे। उनसे ग्वालों को बहुत कष्ट होता था। उन्होंने उनसे गोकुल छुड़वा दिया और उन्हें वृन्दावन में जा बसाया।
इन कार्यों ने उनको जन-नेता बना दिया।
*(3) नीतिमत्ता*:-वे नीतिनिपुण थे। नीति का अर्थ होता है-कोई कार्य ठीक ढंग से पूरा करने के लिए की जाने वाली युक्ति या उपाय।
जब महाराज युधिष्ठिर के मन में सम्राट बनने के निमित्त राजसूय यज्ञ का विचार आया तो श्रीकृष्ण ने सम्मति दी कि जब तक मगध के राजा जरासन्ध को न मारो तब तक राजसूय यज्ञ के अधिकारी नहीं हो सकते। उसने ८६ राजाओं को अपनी कैद में रक्खा है, १४ को और कैद करना चाहता है।इसके पश्चात् वह उन १०० राजाओं की बलि देना चाहता है।
जरासन्ध के पास अपार सेना थी।उसको सेना द्वारा जीतना तो असम्भव था। यहां श्रीकृष्ण ने कुशल नीतिमत्ता का परिचय दिया। उन्होंने मल्लयुद्ध द्वारा जरासन्ध को मारने का निश्चय किया। वे भीम और अर्जुन को लेकर मगध की और चले। वे मगध की राजधानी गिरिव्रज तक पहुँच गये। वे नगर में मुख्य द्वार से प्रविष्ट नहीं हुए। उन्होंने चैत्यक नामक विशाल शिखर को तोड़कर नगर में प्रवेश किया। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया। एक माली से मालाएँ छीनकर धारण की। वे राजा जरासन्ध के महल तक जा पहुँचे। राजा ने उनका सत्कार किया। तब श्रीकृष्ण ने कहा-"ये दोनों मौन व्रतधारी हैं, अतः आधी रात को बोलेंगे"। जब जरासन्ध ने पूछा कि आप किस प्रयोजन से आये हैं? तब श्रीकृष्ण ने कहा-"शत्रु मुख्य द्वार से नहीं आया करते। स्नातक ब्राह्मण भी हो सकता है और क्षत्रिय भी।"
श्रीकृष्ण ने कहा–"आपने ८६ राजाओं को कैद किया है। वही हमारी आपकी शत्रुता का कारण है।"
फिर श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को मल्लयुद्ध के लिए आमन्त्रित किया और भीम को अपनी तरफ से चुना। १३ दिन तक मल्लयुद्ध होता रहा। अन्त में भीम ने उसे मार डाला।
फिर बन्दी राजाओं को छुड़वाया।
कर्ण के साथ अर्जुन का युद्ध हो रहा था। कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धँस गया। कर्ण ने अर्जुन को कहा, "मैं अपना रथ भूमि से निकाल लूं, फिर मुझसे युद्ध करना। रथारूढ़ व्यक्ति का भूमि पर खड़े हुए पर बाण छोड़ना क्षत्रिय का धर्म नहीं है।" तब श्रीकृष्ण ने उपयुक्त अवसर जानकर नीतिमत्ता का परिचय देते हुए कहा था―
*यद् द्रौपदीमेकवस्त्रां सभायामानायेस्त्वं च सुयोधनश्च।*
*दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च न ते प्रत्यभात्तत्र धर्मः ।।-(महा० कर्णपर्व ९१/२)*
"कर्ण ! जब तुमने दुर्योधन, दुःशासन तथा सुबलपुत्र शकुनि ने एक वस्त्र धारण करने वाली रजस्वला द्रौपदी को सभा में बुलाया था, उस समय तुम्हारे मन में धर्म का विचार नहीं आया था?"
"जब कौरव-सभा में जुए के खेल से अनभिज्ञ राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जानबूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहां चला गया था?"-(कर्णपर्व ९१/३)
"कर्ण ! वनवास का तेरहवाँ वर्ष व्यतीत होने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हे वापिस नहीं किया,उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था?"-(कर्णपर्व ९१/४)
*यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम् ।*
*सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।-(कर्णपर्व ९१/७)*
अर्थ:-कर्ण ! भरी सभा में दुःशासन के वश में पड़ी हुई द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था ?
*यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः ।*
*परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।-(कर्णपर्व ९१/११)*
अर्थ:-जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों और से घेरकर मार डाला उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?
इस पर अर्जुन ने बाणों की वर्षा करते हुए कर्ण को मार डाला।
ये श्रीकृष्ण की नीतिमत्ता का परिचय था।
जब दुर्योधन और भीम का गदायुद्ध होते हुए हार और जीत का कोई निर्णय नहीं हो रहा था तब श्रीकृष्ण ने अपनी बायीं जांघ को ठोककर भीम को उसकी प्रतिज्ञा याद दिलाई। जब दुर्योधन ने भरे दरबार में द्रौपदी को अपनी जांघ पर बैठने का संकेत किया था तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वह गदायुद्ध में उसकी जांघ तोड़ेगा।
इस प्रकार कृष्ण ने दुर्योधन को समाप्त करवाया। यह श्रीकृष्ण की नीतिमत्ता थी।
*(4) धर्म और न्याय के पक्षधर*:-पाण्डव धर्म परायण थे इसलिए उन्होंने उनका साथ दिया और उनकी जीत करवाई। कौरव सभा में भी श्रीकृष्ण ने यही बात कही―
*यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।*
*हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ।।-(उद्योग० ९५/४८)*
जहाँ सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और असत्य द्वारा सत्य का हनन होता है, वहां वे सभासद नष्ट हुए जाने जाते हैं।
*(6) दृढ़प्रतिज्ञ:-*
श्रीकृष्ण दृढ़प्रतिज्ञ थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाने से पहले द्रौपदी के सम्मुख जो प्रतिज्ञा की थी उसे निभाया। जब द्रौपदी ने रोकर और बायें हाथ में अपने केशों को लेकर अपने अपमान का बदला लेने की बात कही तब श्रीकृष्ण बोले―
*चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा भवेत् ।*
*द्यौः पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत् ।।-(उद्योगपर्व ८२/४८)*
अर्थ:-चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से टल जाए, पृथिवी के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँ और नक्षत्रोंसहित आकाश टूट पड़े, परन्तु मेरी बात असत्य नहीं हो सकती।
इससे पूर्व उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी―
*धार्तराष्ट्राः कालपक्वा न चेच्छृण्वन्ति मे वचः ।*
*शेष्यन्ते निहिता भूमौ श्वश्रृगालादनीकृताः ।।-(उद्योग० ८२/४७)*
अर्थ:-यदि काल के गाल में जाने वाले धृतराष्ट्र-पुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो वे सब मारे जाकर पृथिवी पर सदा की नींद सो जाएँगे और कुत्तों तथा स्यारों का भोजन बनेंगे।
*(7) सहनशीलता:-*
श्रीकृष्णजी में सहनशीलता का गुण भी था। वे राजसूय यज्ञ में शिशुपाल से कहने लगे कि मैं तुम्हारी सौ गालियाँ सहन कर लूँगा परन्तु इससे आगे जब तुम बढ़ोगे तो तुम्हारा सिर धड़ से पृथक कर दूंगा। उन्होंने ऐसा ही किया―
*एवमुक्त्वा यदुश्रेष्ठश्चेदिराजस्य तत्क्षणात् ।*
*व्यापहरच्छिरः क्रुद्धश्चक्रेणामित्रकर्षणः ।।-(सभापर्व ४५/२५)*
अर्थ:-ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुनाशक यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण चेदिराज शिशुपाल का सिर उड़ा दिया।
*(8) निर्लोभता:-*
उन्होंने कंस को मारा, परन्तु उसका राज्य अपने हाथ में नहीं लिया। अपने नाना उग्रसेन को राजा बनाया―
*उग्रसेनः कृतो राजा भोजराज्यस्य वर्द्धनः ।-(उद्योग १२८/३९)*
जब जरासन्ध को मार दिया तब श्रीकृष्ण ने उसके बेटे सहदेव का राज्याभिषेक किया।
*(9) ईश्वरोपासक:-*
श्रीकृष्ण ईश्वरोपासक थे। वे नित्य-प्रति सन्ध्या, हवन और गायत्री जाप करते थे―
*अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।*
*रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।-(महा० उद्योग० ८४/२१)*
अर्थ:-जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही रथ से उतरकर रथ खोलने का आदेश दिया और पवित्र होकर सन्ध्योपासना में लग गये।
_भागवत पुराण_ में भी उनकी ईश्वरभक्ति की और संकेत किया गया है―
*ब्राह्ममुहूर्त्ते उत्थाय वायुं पस्पृश्य माधव ।*
*दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।-(भागवत १०/७०/४)*
अर्थ:-श्रीकृष्ण ब्राह्ममुहूर्त में उठकर पवित्र जल से हाथ-मुँह धोकर अत्यन्त प्रसन्न हो हृदय में प्रकृति से परे ज्योतिस्वरुप ब्रह्म का ध्यान करने लगे।
*(10) घातक के प्रति कोई प्रतिकार नहीं:-*
श्रीकृष्ण ने जब अपनी मृत्यु का समय सन्निकट समझा तब सम्पूर्ण इन्द्रियवृत्तियों का निरोध करके महायोग समाधि का आश्रय लिया। वे पृथिवी पर लेट गये। उसी समय जरा नामक व्याध मृगों को मारकर उस स्थान पर आया।उस समय श्रीकृष्ण योगमुक्त होकर सो रहे थे। मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी कोई मृग समझा और अत्यन्त उतावली के साथ बाण मारकर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया। फिर उस मृग को पकड़ने के लिए जब वह निकट आया तब उसने योग में स्थित पीताम्बरधारी और महातेजस्वी श्रीकृष्ण को देखा―
*मत्वाऽऽत्मानं त्वपराद्धं तस्य*
*पादौ जरा जगृहे शंकितात्मा ।*
*आश्वासयंस्तं निभृतं महात्मा*
*अगच्छदूर्ध्वंदिवि व्याप्य लक्ष्म्या ।।-(मौसलपर्व ४/२४)*
अर्थ:-अब तो वह जरा नामक व्याध अपने आपको अपराधी मानकर मन-ही-मन बहुत डर गया। उसने श्रीकृष्ण के दोनों पैर पकड़ लिये। तब महात्मा श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्ति और यश से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके मोक्षधाम को चले गये।
*(11) महाभारतकाल के सर्वमान्य महापुरुष:-*
श्रीकृष्ण महाभारत काल के सर्वमान्य महापुरुष थे।राजसूययज्ञ के अवसर पर _भीष्म पितामह_ ने प्रधान अर्घ्य देते हुए उनके विषय में यह कहा था:-
*वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा ।*
*नृणांलोकेहि कोऽन्योऽस्ति विशिष्टः केशवादृते ।।*
*दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा ।*
*सन्नतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताच्युते ।।*-(महा० सभापर्व ३८/१९/२०)
*अर्थ:*-वेदवेदांग के ज्ञाता तो हैं ही, बल में भी सबसे अधिक हैं।श्रीकृष्ण के सिवा इस युग के संसार में मनुष्यों में दूसरा कौन है? दान, दक्षता, शास्त्र-ज्ञान, शौर्य, आत्मलज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि―सभी गुण श्रीकृष्ण में विद्यमान है !
लोग गोवर्धन की परिक्रमा के लिए वृन्दावन जाते हैं, परन्तु उनमें से अधिकांशतः लोग न तो गाय का दूध पीते हैं, न ही घी व् पंचगव्य का प्रयोग करते हैं.! लम्बी गुलामी से उपजे अज्ञान के कारण श्री कृष्ण के आचरण में उतारे बिना उनकी कृष्ण भक्ति सिर्फ अभिवादन में "राधे-राधे" या "जय श्री कृष्ण" और गोवर्धन जी की परिक्रमा तक ही सीमित हो कर रह गयी है.! गोवर्धन का मतलब क्या है.? गौ-संवर्धन यानी गायों की वंश वृद्धि ! क्या बिना गौ उत्पाद प्रयोग किये बिना आपकी गोवर्धन परिक्रमा सफल होगी.?
जरा सोचिये..??
5000 वर्ष बाद आज हम श्री कृष्ण को तो मानते है लेकिन श्री कृष्ण की नहीं मानते . अर्थात उनके बताये हुए रास्ते पर नहीं चलते हैं #देशी_गाय के बिना गोपाल / गोविन्द / गोवर्धन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अगर आपने एक गाय को भी पालकर या पालने में सहयोग कर उसे कटने से बचा लिया तो यह तय है की आपको हज़ार गोवर्धन परिक्रमा का लाभ मिलेगा और श्री कृष्ण हमेशा के लिए आपके ऋणी हो जायेंगे की आपने उनकी प्यारी गाय की रक्षा में योगदान किया. और तब ही सही मायने में श्री कृष्ण की जय होगी और आपका "जय श्री कृष्ण" कहना सार्थक होगा. 🙏🙏 जय गौ माता, जय श्री कृष्ण🙏
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