गणपति की यथार्थता

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कल हमने शिवपुराण में वर्णित गणेशजी के स्वरूप और इतिहास को प्रस्तुत किया था। इस पर कुछ पाठकों ने कुछ आपत्तियां की थीं और कुछ ने गणेशजी के वास्तविक स्वरूप को जानने की इच्छा व्यक्त की थी। इस विषय में हमारा कथन स्पष्ट है कि आज पौराणिक गणेश को ही सर्वत्र माना और जाना जा रहा है। इस पुराण में वर्णित कथा से कहीं भी आलंकारिक गणेश की सिद्धि नहीं होती है, जो महानुभाव गणेशजी के रूप की आलंकारिक व्याख्या करते हैं, उसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। क्या कोई शिवपुराण में वर्णित सम्पूर्ण कथा की ऐसी आलंकारिक व्याख्या कर सकता है? फिर शिवपुराण की कथा में गणेशजी के छः हाथ होने का संकेत भी नहीं है, तब क्या कोई चित्रकार जैसा भी चित्र बना दे, उसकी ही हम आलंकारिक व्याख्या करने लग जायेंगे? क्या देवों अथवा ईश्वर का स्वरूप चित्रकार निर्धारित करेंगे? क्या हमें इसके लिए वेद और ऋषियों के ग्रन्थों की कोई आवश्यकता नहीं है? जो महानुभाव धर्म को केवल आस्था और विश्वास की वस्तु मानते हैं, क्या वे इस बात पर चिंतन करेंगे कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं हो सकता और सत्य का निर्धारण कभी आस्था और विश्वासों से नहीं, बल्कि तर्कसंगत तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर होता है। वेद के पश्चात् संसार के सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ मनुस्मृति (मिलावटी श्लोकों को छोड़कर) में भगवान् मनु ने स्पष्ट कहा है-

‘‘यस्तर्केण अनुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।’’

अर्थात् जो तर्क के साथ अनुसंधान करता है, वही धर्म को जान सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। महर्षि यास्क ने निरुक्त शास्त्र में तर्क को ऋषि और ऊहा को ब्रह्म कहा है। इससे स्पष्ट है कि धर्म कभी भी आस्था और विश्वासों के आधार पर नहीं समझा जा सकता। जबसे ऋषियों की इस बात को भुलाकर, वेद से सर्वथा अज्ञानी रहकर कल्पित ग्रन्थों एवं वेदविहीन धर्माचार्यों व कथा वाचकों की मिथ्या कथाओं को सुनकर आस्था और विश्वासों के आधार पर धर्म का निर्धारण होने लगा, तबसे संसार में हजारों धर्म पैदा हो गये और उन परस्पर विरोधी कथित धर्मों ने मानव समाज को खण्ड-2 करके खून की नदियां बहाई हैं। यह खेल सैकड़ों वर्षो से अनवरत जारी है। कोई भी अपने कथित धर्म पर वैज्ञानिक दृष्टि से तर्कसंगत विचार करके एक सत्यधर्म की खोज का प्रयास नहीं करता।

गणपति की ऐतिहासिकता-

महाभारत में गणेशजी को महर्षि व्यास जी का लेखक अवश्य बताया है परन्तु उसमें गजानन्द, एकदन्त एवं शिवपुत्र जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं हैं, न उनका कोई स्पष्ट परिचय है। वो व्यासजी के वचनों को लिखने के लिए आये और लिखने लगे, यह चर्चा दो-तीन श्लोकों में हैं, परन्तु महाभारत ग्रन्थ की समाप्ति पर यह कहीं भी संकेत नहीं है कि गणेशजी लेखन कार्य पूर्ण करके वापस चले गये। फिर यहाँ यह भी विचारणिय है कि महर्षि वेदव्यास जी जैसे महापुरुष की शिष्य मंडली में क्या कोई ऐसा योग्य भी नहीं था कि लेखन कार्य भी कर लेता। इस कारण यह प्रसंग ही प्रक्षिप्त (मिलावट) प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश में राजर्षि भोज द्वारा लिखित ‘‘संजीवनी’’ नामक ग्रन्थ के हवाले से कहा है ‘‘व्यास जी ने महाभारत में कुल चार हजार चार सौ श्लोक ही लिखे थे। पुनः उनके शिष्यों ने पाँच हजार छः सौ श्लोक मिलाकर दश हजार श्लोकों का ‘‘भारत’’ नामक ग्रन्थ बनाया। महाराज विक्रमादित्य के समय में बीस हजार श्लोेक, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिताजी के समय में पच्चीस और अब मेरी आधी उम्र में तीस हजार श्लोक का महाभारत पुस्तक मिलता है, जो ऐसे ही बढ़ता चला, तो महाभारत का पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायेगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे, तो आर्यावर्तीय लोग भ्रमजाल में पड़के वैदिक धर्म विहीन हो के भ्रष्ट हो जायेंगे।’’

पाठक यह बात सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वयं पढ़ सकते हैं। यह मिलावट राजा भोज के पश्चात् भी निरन्तर जारी रही और आज गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत ग्रन्थ में एक लाख दो सौ सत्रह श्लोक हैं। इस कारण महाभारत के प्रमाण देने से पूर्व विशेष तर्क बुद्धि और गंभीर स्वाध्याय का आश्रय लेना आवश्यक है। इन सब कारणों से हमें गणेशजी का इतिहास ही पूर्णतया कल्पित प्रतीत होता है। हिन्दुओं में पूजे जा रहे विभिन्न देवी-देवताओं में महादेव, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, भगवती उमा, राम, हनुमान् एवं कृष्ण आदि ऐतिहासिक पुरुष हैं। इनमें से शिव, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र एक परमपिता परमेश्वर के भी गुणवाची नाम हैं, जो वेदों में वर्णित हैं और वेदों में से ही पढ़कर हमारे महापुरुषों ने अपने-2 नाम रखे। इस प्रकार जिन साकार देवों की पूजा होती है, वह वस्तुतः ईश्वर की पूजा नहीं बल्कि उन महापुरुषों के विकृत चित्रों की पूजा होती है। इनमें गणेशजी की ऐतिहासिकता कहीं सिद्ध नहीं होती है।

गणेश जी का वैदिक स्वरूप-

वस्तुतः गणपति ईश्वर का नाम अवश्य है, जो वेदों में उपलब्ध है। इस नाम की व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम  समुल्लास में लिखते हैं।

‘‘जो प्रकृत्यादि जड़ और सब प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करने हारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘‘गणेश’’ वा ‘‘गणपति’’ है।’’ वेद में ऐसे ही गणपति का वर्णन अनेक मन्त्रों में आता है। गणपति का एक नाम राजा भी होता है, क्योंकि वह ‘‘गण’’ अर्थात् प्रजा के समुदायों का रक्षक और पालक होता है। गणपति का एक अर्थ सेनापति भी होता है, क्योंकि वह सेना के समूहों का स्वामी होता है। आचार्य और माता-पिता को भी गणपति कह सकते हैं। निघण्टु शास्त्र में ‘‘गणः’’ शब्द वाक् तत्त्व के लिए प्रयुक्त हुआ है।

इस कारण वैज्ञानिक अर्थ में गणपति का अर्थ मनस्तत्त्व, प्राणतत्त्व एवं आध्यात्मिक अर्थ में परमात्मा होता है। महर्षि तित्तिर द्वारा रचित तैत्तिरीय संहिता में विभिन्न मरुद् रश्मियों को गणपति कहा है। क्योंकि ये रश्मियां इस ब्रह्मांड में सूक्ष्म प्राण एवं छन्द रश्मियों के साथ मिलकर विद्युत् तंरगों को उत्पन्न वा नियन्त्रित करती हैं। ये मरुद् रश्मियां ही आकाशीय विद्युत् एवं विभिन्न तारों में बहने वाली तीव्र विद्युत् तरंगों को समृद्ध करती हैं। इधर आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्रियों का स्वामी होने के कारण जीवात्मा को भी गणपति कह सकते है।

सारांशत-  गणपति/गणेश के तीन अर्थ सिद्ध होते है-

1. आध्यात्मिक- ईश्वर एवं जीवात्मा
2. आधिभौतिक- राजा, सेनापति, माता-पिता एवं आचार्य आदि
3. आधिदैविक (वैज्ञानिक)- मनस्तत्त्व, प्राणतत्त्व एवं मरुद् रश्मियां

गणपति की पूजा कैसे करें

1. आध्यात्मिक गणपति की पूजा- समस्त ब्रह्मांड के स्वामी निराकार गणपति परमेश्वर की नित्य उपासना, ध्यान करते हुए, जैसे वह सबका पालन व रक्षण करता है, वैसे ही हम भी न केवल मनुष्य अपितु प्राणिमात्र के साथ मित्रवत् व्यवहार करके उन के सुख को अपना सुख एवं उनके दुःख को अपना दुःख समझें। मिथ्या आस्थाओं के नाम पर चल रहे सम्प्रदायों, भाषा, देश एवं कथित जाति, लिगं, रंग आदि के नाम पर वैर, विरोध एवं भेदभाव कदापि न करें।

दूसरी ओर अपने आत्मा को वास्तव में इन्द्रियों का स्वामी बनावें, एवं स्वच्छन्दता, विषयलोलुपता आदि से दूर रहने का प्रयास करें।

2. आधिभौतिक गणपति की पूजा- देश का राजा (वर्तमान में नेता) देश की पूजा का वास्तव में पालन और रक्षण करने वाला होवे, वह जाति, मजहब आदि के नाम पर किसी के साथ अन्याय, भेदभाव न करके समान रूप से सबका संरक्षण करने वाला होवे। वह आध्यात्मिक गणपति की सच्ची पूजा करने वाला होवे। इसके साथ ही प्रजा का यह कर्त्तव्य है कि देश में उपलब्ध नेताओं में से तुलनात्मक रूप से जो भी ऐसी पूजा करने वाला हो, उसको ही अपना नेता चुने। योग्यता, चरित्र और कर्मठता की तुलना करके ही नेता का चुनाव करें। तात्कालिक लोभ तथा जाति और मजहबों के प्रलोभन से बचेें और राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझे।

3. आधिदैविक (वैज्ञानिक) गणपति की पूजा- मनस्तत्त्व, प्राण, मरुत् आदि रश्मियों का गंभीर ज्ञान करके ब्रह्मांड को समझने का प्रयास किया जाए एवं सृष्टि विद्या को यथार्थ रूप में जानकर आधुनिक भौतिकी को पूर्णता और प्रामाणिकता प्रदान करके संसार में पूर्ण निरापद एवं अति आवश्यक तकनीक का ही विकास किया जाए, जिससे पर्यावरण तन्त्र सुरक्षित और स्वस्थ रहकर प्राणिमात्र को सुख देने वाला होवे।

#नोट- वर्तमान में पाण्डालों में पूजा करने वाले गणेशजी के सभी भक्तों से आग्रह है कि वे अपनी पूजा पद्धति और हमारी पूजा दोनों की तुलना निष्पक्ष रूप से स्वयं करके देखें, केवल भावनाओं एवं मिथ्या परम्पराओं में नहीं बल्कि मन और बुद्धि से शांतचित होकर आपका आत्मा जैसा उचित समझे वैसा करें। 

-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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