नक्षत्रों का वीथि-विभाजन”=“कैप्लर के ग्रहीय गति के नियम

भारतीय संस्कृति का आधार वेद को माना जाता है। वेद धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है बल्कि विज्ञान की पहली पुस्तक है जिसमें चिकित्सा विज्ञान, भौतिक, विज्ञान, रसायन और खगोल विज्ञान का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। भारतीय ज्योतिष विद्या का जन्म भी वेद से हुआ है।

§ नक्षत्रों का वीथि-विभाजन

मत्स्य पुराण आदि में उल्लिखित “नक्षत्रों का वीथि-विभाजन” वस्तुत: आधुनिकयुगीन “कैप्लर के ग्रहीय गति के नियमों” (Kepler's laws of planetary motion) का प्राचीन भारतीय रूप है।

इस विभाजन में भचक्र को क्रमश: 9 वीथियों में विभक्त किया गया है और पशुओं के नाम पर उनका नामकरण किया गया है।

मन्दगामी पशु के नाम वाली वीथि में “सूर्य की प्रतीयमान गति” (वस्तुत: पृथ्वी की गति) मन्द होती है तथा तीव्रगामी पशु के नाम वाली वीथि में सूर्य की प्रतीयमान गति तीव्र होती है।

वीथियाँ व उनके नक्षत्र इस प्रकार हैं—
1. नागवीथि — स्वाती (?), भरणी व कृत्तिका।
2. गजवीथि — रोहिणी, मृगशिर व आर्द्रा।
3. ऐरावत वीथि — पुनर्वसु, पुष्य व आश्लेषा।
4. वृषभ वीथि — मघा, पूर्वा फाल्गुनी व उत्तरा फाल्गुनी।
5. अजावीथि — हस्त, चित्रा व विशाखा।
6. मृगवीथि — अनुराधा, ज्येष्ठा व मूल।
7. दहना वीथि — पूर्वाषाढा व उत्तराषाढा।
8. जरद्गव वीथि — श्रवण, धनिष्ठा व शतभिषक्।
9. गोवीथि — पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती।

उक्त 9 वीथियों में से 3-3 वीथियों के 3 समूह बनाए गए हैं जो इस प्रकार हैं—
1. नाग, गज व ऐरावत।
2. वृषभ, जरद्गव व गो।
3. अजा, मृग व दहना।

गजवीथि , गोवीथि व मृगवीथि
क्रमश: स्वकीय समूहों की प्रतिनिधि वीथियाँ हैं
जो क्रमश: मन्द, मध्यम व तीव्र सूर्यगति के द्योतक हैं
क्योंकि उस समय गजवीथि के रोहिणी नक्षत्र में अपसौरिका (Aphelion) तथा मृगवीथि के ज्येष्ठा नक्षत्र में उपसौरिका (Perihelion) हुआ करता था।

किसी ग्रह की कक्षा के वे बिन्दु, जिसमें वह सूर्य से दूरतम व निकटतम होता है, क्रमश: अपसौरिका व उपसौरिका कहलाते हैं और इन बिन्दुओं में ग्रह की कक्षीय गति क्रमश: न्यूनतम व अधिकतम होती है।

ऐसा प्रतीत होता है मानो
सूर्य के निकट होने पर यदि ग्रह की गति न बढ़े तो वह सूर्य द्वारा खींच लिया जाएगा
तथा सूर्य से दूर होने पर यदि ग्रह की गति न घटे तो वह सौर-मण्डल से बाहर निकल जाएगा!

अपसौरिका व उपसौरिका बिन्दुओं को मिलाने वाली कल्पित रेखा ग्रह की कक्षा का “दीर्घाक्ष” (major axis) कहलाती है। पृथ्वी की कक्षा का दीर्घाक्ष लगभग 11·15 विकला प्रतिवर्ष की दर से पूर्व की ओर घूर्णन कर रहा है।
(1 अंश = 60 कला ; 1 कला = 60 विकला)

सम्प्रति उपसौरिका पूर्वाषाढा नक्षत्र में है जो ज्येष्ठा नक्षत्र से पूर्व में 24 अंश 49 कला व 7 विकला की दूरी पर है।
अत: उपसौरिका बिन्दु को ज्येष्ठा से पूर्वाषाढा तक आने में लगभग 8000 वर्ष लगे होंगे!

अर्थात् वीथियों का उक्त विवरण न्यूनतम 8000 वर्ष प्राचीन है!!

यह विवरण भारतीय ज्योतिष की प्राचीनता का एक उल्लेखनीय उदाहरण है!!!

अस्तु
मन्दतम सूर्यगति वाली गजवीथि के समूह में नाग, गज व ऐरावत वीथियाँ हैं।
गजवीथि समूह में प्रयुक्त नाग व ऐरावत भी गज (हाथी) के ही वाचक हैं जो मन्दगामी होता है।

तीव्रतम सूर्यगति वाली मृगवीथि के समूह में अजा, मृग व दहना वीथियाँ हैं।
मृगवीथि समूह में प्रयुक्त अजा (बकरी) व दहना (अग्नि ?) भी मृग (हरिण) की ही भाँति तीव्रगामी हैं।

मध्यम सूर्यगति वाली गोवीथि के समूह में वृषभ, जरद्गव व गो वीथियाँ हैं।
गोवीथि समूह में प्रयुक्त जरद्गव (बूढ़ा बैल) व वृषभ (साँड) भी गोवंशी ही हैं जो मध्यम गति वाले होते हैं।
नाम से ही स्पष्ट है कि जरद्गव वीथि में वृषभ वीथि की तुलना में मन्द सूर्यगति होती है।

§ नागवीथि में भरणी व कृत्तिका के साथ स्वाती को क्यों परिगणित किया गया है?

नागवीथि में परिगणित “स्वाती
“स्वाति नक्षत्र” नहीं प्रत्युत “स्वातिपक्ष” है
जिसका तात्पर्य है— भचक्र का वह बिन्दु जो स्वाति नक्षत्र से 180° की दूरी पर है।

उस समय स्वाती (स्वातिपक्ष) को “मेषादि व मीनान्त” अर्थात् मेष राशि का आरम्भ-बिन्दु व मीन राशि का अन्त-बिन्दु माना जाता था।

आजकल स्वातिपक्ष के स्थान पर चित्रापक्ष को मेषादि व मीनान्त माना जाता है।

गजवीथि समूह में मेष, वृष, मिथुन व कर्क राशियाँ होती हैं।

मृगवीथि समूह में कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु व मकर राशियाँ होती हैं।

भारत में वैज्ञानिक/तकनीकी/खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, और इन संख्याओं को शब्दो मे ही लिखना पडता था।  संख्याओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त किये बिना विषय का समुचित विवेचन नहीं किया जा सकता था।

प्राचीन भारतीय चिन्तकों/ॠषियों ने इसका समस्या का समाधान 'कटपयादि' के रूप में निकाला।

इसमें शून्य (०) से नौ (९) तक के दस अंकों को देवनागरी के दस वर्णों के रूप मे लिखा जाता है।

इस पद्धति की विशेषता है कि एक ही अंक को कई अक्षरों  (व्यंजनों) से बताया जाता है जबकि कुछ अक्षरों का कोई संख्यात्मक मान नही होता है। और इस तरह से इस विधि मे किसी भी संख्या चाहे वो कितनी भी बडी क्यो ना हो बहुत सरलता से अर्थपूर्ण शब्दों या श्लोक मे लिखा जा सकता है।अर्थपूर्ण शब्द रहने से याद करने में सरलता होती है।

अब जरा इस छंद को देखिये, बता सकते हैं क्या है यह?

भद्राम्बुद्धिसिद्धजन्मगणितश्रद्धा स्म यद् भूपगी:

नही पता?

अच्छा यह संख्या क्या है बता सकते हैं? 314159265358979324

यह संख्या पाई या π  का मान है दशमलव के बाद सत्रह अंकों तक। जिसे शंकर वर्मन ने अपनी पुस्तक सद्रत्नमाला मे लिखा था।

सद्रत्नमाला (= सद् + रत्नमाला = 'सच्चे रत्नों की माला') शंकर वर्मन द्वारा सन् १८१९ में संस्कृत में रचित खगोल और गणित का ग्रन्थ है। शंकर वर्मन केरलीय गणित सम्प्रदाय के खलोगशास्त्री एवं गणितज्ञ थे।

अब इस छंद को देखिये, यह भी पाई या π  का मान है, जिसे करणपद्धति मे बताया गया है

अनूननून्नानननुन्ननित्यैस्समाहताश्चक्रकलाविभक्ताः।चण्डांशुचन्द्राधमकुंभिपालैर्व्यासस्तदर्द्धं त्रिभमौर्विक स्यात्‌॥

करणपद्धति (शाब्दिक अर्थ : 'करने का तरीका') संस्कृत में रचित एक ज्योतिष तथा गणित का ग्रन्थ है। जिसकी रचना केरलीय गणित सम्प्रदाय के ज्योतिषी-गणितज्ञ पुदुमन सोम्याजिन् ने करीब पंद्रहवीं शताब्दी मे की थी।

इसमें दस अध्याय हैं। इस ग्रन्थ के छठे अध्याय में गणितीय नियतांक पाई (π) तथा त्रिकोणमितीय फलनों ज्या, कोज्या तथा व्युस्पर्शज्या (inverse tangent) का श्रेणी के रूप में प्रसार दिया हुआ है।

मजेदार बात यह है कि इस अनुपात के लिये π संकेत का प्रयोग सर्वप्रथम सन् १७०६ में विलियम जोन्स ने सुझाया। यह वही महान चोर विलियम जोन्स है जिसने सनातन इतिहास का सर्वनाश किया।

अब एक और छंद देखिये

श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।
तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं।।
धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।
म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः।।
मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।
अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः।।
तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।
शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः।।
छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।
रात्रौ दर्पणमभ्राङ्गं नागस्तुङ्गनखो बली।।
धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः।।
तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।
स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः।। २.९.५

शायद ही कोई अनुमान लगा पाये की यह माधवाचार्य की ज्या सारणी (Sine table)। वही sign table जिसे हम सब ने स्कूलों मे geometry मे पढ़ा है।

माधवाचार्य (1238-1317) भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे।

यह पूर्णप्रज्ञ व आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है।

माधवाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है (हनुमान और भीम क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे)।

माधवाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे। उन्होने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होने द्वैतदर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदांत के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ 'अनुव्याख्यान' भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है। ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया।

इसी कटपयदी संख्या पर आधारित पादुका सहस्रम् वेदान्त देशिक की संस्कृत चित्रकाव्य है। इसमें १००८ श्लोकों में श्रीराम की पदुका (खड़ाऊँ) की वन्दना-आराधना की गयी है। यह पुस्तक उन कुछ पुस्तकों में से एक है जिसे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के लोग प्रतिदिन पाठ करते हैं।

ऐसा कहा जाता है वेदान्त देशिकर ने कि इस पुस्तक की रचना मात्र एक रात में कर दी थी। यह रचना श्रीरंगम स्थित भगवान रंगनाथ के प्रति देशिकर की अगाध भक्तिभावना की भी परिचायक है।

सबसे रोचक तथ्य यह पुस्तक आधुनिक computer science के सबसे जटिल programming problem, knight's tour का हल है।

अश्व संचालन समस्या (knight's tour) एक गणितीय समस्या है जिसमें शतरंज के बोर्ड पर घोड़े (knight) को चलाना है किन्तु शर्त यह है कि किसी भी खाने में वह दो बार न जाय (जब तक सभी खानों में न पहुँच जाय)। घोडे की यह यात्रा तब तक चलती रहती है जब तक वह आरम्भिक खाने से 'एक अश्व छलांग' पर न आ जाय (अर्थात अपने पुराने रास्ते को दोहराने के लिये)।

✍🏻
अमित कुमार

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