ग्रामीण प्रशासन की प्राचीन "बिसवा " व्यवस्था

विगत जनवरी २०१६ की बात है, एक ठेठ हरियाणवी बिश्नोई पत्रकार से चर्चा हो रही थी, बातो ही बातो मे उन्होने कह दिया कि हरिय़ाणा मे शिक्षा का अभाव इतना ज्यादा था कि लोग बीस से ज्यादा का अंक नही जानते थे, उनका इस तरह से कहना मुझे जंचा नहीं, जिज्ञासावश पूछने पर उन्होने कहा देखो हमारे गांव, गांव के खेत और उत्पादित फ़सल सभो बीस की इकाई पर चलती है, इसी से साबित हो जाता है कि बीस से अधिक के अंक हमारे पूर्वज नहीं जानते थे, हमारे देश मे 'अपने पूर्वजों और प्रथाओ' पर अज्ञान का लबादा उढाकर स्वयं को प्रगतिशील बताने वालों का भी एक सिलसिला है.

क्या किया जाऎ, इस राष्ट्र की संस्कृति और इतिहास जिन्हे संभालना है, उन्हे एहसास ही नही है कि क्या करना है. वे नारो से हिंदुत्व बचाना चाहते हैं.

खैर, अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिये, इस विषय़ पर आगे अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि उत्तर वैदिक काल मे जब गांव व्यवस्थित हो चुके थे एवं प्रशासन व्यवस्था किसी भी मान्य व्यवस्था जैसे - राजकीय, गणो की संघीय इत्यादि के रूप में, सुविकसित हो रही थी, तबसे बिसवा प्रशासकीय व्यवस्था भी ग्रामीण क्षेत्रो मे चलने लगी थी.

दरअसल, वैदिक काल मे जब से द्शमलव आधारित गणना पद्धति का विकास हुआ, प्रशासनिक व्यवस्था भी इसी आधार पर विकसित की गयी, जो कि परिपक्व वैज्ञानिक सोच का द्योतक है। राधाकुमुद मुखर्जी एवं रमेशचंद्र मजुमदार इत्यादि कुछ इतिहासकारो ने इस पर ध्यान आकर्षित किया है

मनुस्मृति ( ७.११५ - १२०) मे इस दाशमिक प्रशासन का पर्याप्त वर्णन प्राप्त जोता है जहा कहा गया है कि प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी, जिसका प्रबंधन ग्रामणी के हाथों मे होता था, ऎसे दश ग्रामो के उपर एक द्शी होता था, एवं इसी तरह बीस गावो का समूह बिसवा  कहलाता था जिसका प्रबंधन बिसी के अधीन होता था, इसी क्रम में शतेश, सौ ग्रामो का मुखिया होता था एव सहस्त्रेश एक हजार  गावो का अधिपति होता था।

यह सभी पद अवैतनिक होते थे, ग्रामणी को अन्न, ईंधन एवं शाक सब्जी इत्यादि मिलता था, दशी को एक परिवार के पोषण लायक भूमी एवं बिंशी को पांच परिवारो के लायक पर्याप्त भूमि एवं बीज आदि दिये जाते थे.

व्यावहारिक रूप से संभवतः बिसवा स्वतंत्र इकाई होती थी, जिस तरह से आजकल तहसील या जिला द्वारा किसी की स्थानीय पह्चान बताई जाती है, ठीक उसी तरह उत्तर वैदिक युग मे बिसवा द्वारा स्थानीय पह्चान बताई जाने लगी, कुछ समुदायो मे बिसवा या बीसा को गोत्र के साथ जोड कर देखा जाने लगा, जैसे कि कुछ ब्राह्मण समुदाय, बिसेन क्षत्रिय, बिश्नोई इत्यादि.

भारत की प्राचीन ग्राम व्यवस्था में गाँव की ज़रूरत का सब सामान गाँव में ही बनता था। इसके लिए गाँव में हर कला और तकनीक का जानकार होता था। गाँव हर एक जन  के भोजन , सुरक्षा और सम्मान की व्यवस्था करता था। हर एक वस्तु छोटे गृह उद्योग के स्तर पर या छोटे कारखानो के स्तर पर ही बनती थी। जब तक कारखाने छोटे होते है वे समाज को व्यस्थित करते है। बड़े कुटुंब होते है। इन कुटुम्बों में हर एक व्यक्ति के हित की रक्षा हो जाती है।  जब कारखाने और नगर विशाल हो जाते है तो वे समाज को नियंत्रित करने लगते है। कुटुंब टूट कर परिवार और परिवार टूट कर व्यक्ति रह जाता है। पर्यावरण का शोषण होने लगता है। इसलिए प्राचीन भारत में बहुत विशाल महानगर नही थे।
गाँव में हर कला और तकनीक का एक " ज्ञाति" होता था। इसका अशुद्ध उच्चारण होते होते यह जाति हो गया।
हर एक जाति एक कला या तकनीक की विरासत संभालती थी। इस ज्ञान का उसे गर्व होना चाहिए। कोई भी ज्ञान छोटा या बड़ा नही होता। समाज के लिए हर ज्ञान ज़रूरी है। सभी ज्ञाति मिल कर राष्ट्र निर्माण करते है।
अँगरेज़ आये और अपने साथ बड़े कारखाने और ज़मींदारी की कुव्यवस्था लाये। बड़े कारखानों ने बड़े महानगरों को जन्म दिया।  बड़े नगर आस पास के छोटे गांवों को बर्बाद कर देते है। बड़े कारखाने समाज , कुटुंब और पर्यावरण को अस्त व्यस्त करते गए। जीवन शैली तेज़ होते गई और सोच मंद होती गई।
गुरूजी श्री रविन्द्र शर्मा को सुनते हुए.......

भारतवर्ष में प्राचीन काल में जो शासन या राज्य व्यवस्था थी उसकी प्रशंसा अनेक विदेशी विद्वानों ने भी जो खोलकर की है। सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा है कि भारतवर्ष में जो पंचायतें थीं, वह छोटे-मोटे प्रजातन्त्रीय राज्यों की ही तरह थी। वे उन सब बातों का प्रबन्ध करती थीं जिनकी गाँवों को जरूरत हुआ करती है। एक दूसरे लेखक सर जार्ज बर्डवुड ने लिखा हैं कि “हिन्दुस्तान में सबसे अधिक धार्मिक और राजनैतिक क्राँतियाँ हुई हैं, पर ग्राम-पंचायतें अपना काम सदैव बिना रुकावट के करती रहीं। सिथियन, यूनानी, अफ़गान, मंगोल आदि अपने पहाड़ी इलाकों से आकर आक्रमण करते रहे, इसी प्रकार पोर्तुगीज, डच, अंग्रेज, फ्राँसीसी अपने-अपने समुद्रों से आये और इस देश के कुछ भागों के शासक बन गये, पर ग्रामों के धार्मिक, और व्यापार संघों पर उनके आने और जाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे एक चट्टान की तरह, ज्वार भाटे के उतार और चढ़ाव से अप्रभावित रहे।

हिन्दू राज्य की आदर्श नीति यह थी कि ग्राम-पंचायतें तथा अन्य राज्य-संस्थाएं, सर्व साधारण के कार्यों में कम से कम हस्तक्षेप करती थी। शासक संस्था का काम जान माल की रक्षा और मालगुजार वसूल करने तक ही सीमित था। राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं की सीमाएं पृथक-पृथक थीं, परन्तु दोनों जनता के लाभजनक कार्यों में एक दूसरे को सहयोग देती थीं। पश्चिमी देशों में इसके विपरीत पहले राज्य, समाज का एजेन्ट होता था और फिर उसका मालिक बन गया। परन्तु हमारे देश में राजा केवल राज्य का सरदार हुआ करता था, समाज संस्था पर उसका शासन नहीं होता था। इंग्लैण्ड आदि देशों में भी स्थानीय संस्थाएं काम करती हैं, वे कुछ अंशों में हमारी पंचायतों की तरह हैं, पर एक तो वे खर्च बहुत ज्यादा करती हैं और दूसरे वे राज्य की ही बनाई होती हैं। परन्तु प्राचीन भारत में पंचायतें स्वतन्त्र थीं और राज्यों का संगठन और विकास उन्हीं के प्रभाव से हुआ करता था। इनका सम्बन्ध अप्रत्यक्ष रूप में केन्द्रीय शासन तक से होता था। एक समय इनके संगठन और प्रभाव से इतना बड़ा साम्राज्य बना था जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित किये हुये भारतीय राज्य या इण्डियन एम्पायर से भी बड़ा था, क्योंकि अफगानिस्तान और मैसूर तक उसमें सम्मिलित थे।

यह समझना भूल है कि प्राचीन भारत में जंगल ही जंगल थे। यहाँ प्राचीन काल में खेती के योग्य उत्तम भूमि की इतनी अधिकता थी कि अन्न की कमी कभी नहीं हो पाती थी। तरह-तरह के व्यापार भी देश भर में होते थे और अनेक प्रकार के कला कौशल के काम भी जारी थे। एक जगह के माल को दूसरी जगह पहुँचाने के लिए सड़कें और व्यापार पथ बने थे, जिनके किनारे थोड़े-थोड़े अन्तर पर धर्मशालाएं थी। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगे थे। अनेक जगह बड़े-बड़े शहर आते थे। सिकन्दर की चढ़ाई के वर्णन में उस समय के लेखकों ने लिखा है कि केवल पंजाब में ही 2000 शहर थे।

यहाँ तक कि मुसलमानी काल में, जो अत्यन्त अशाँति और हलचल का युग माना जाता है, हिन्दू भारत की प्राकृतिक, मानसिक, आचार सम्बन्धी उन्नति में कोई रुकावट नहीं पड़ी। मुसलमान शासकों का शासन राजधानी या बड़े-बड़े नगरों तक ही सीमित रहता था। इस युग में भी हिन्दू संस्कृति बराबर उन्नति करती रही और उसका विस्तार अधिक होता गया। मुसलमानी आक्रमण और शासन के समय में ही भारत में हजारों सन्त, महात्मा, विद्वान, लेखक तथा समाज के संगठनकर्त्ता उत्पन्न हुए जिनका नाम हम आज तक लेते हैं और जिनका वर्तमान समय में हिन्दू समाज पर गहरा प्रभाव है।

उपर्युक्त प्राचीन राज्य व्यवस्था पर दृष्टि डालने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वह बड़ी लाभजनक और प्रभावशाली व्यवस्था थी। प्रत्येक ग्राम और नगर अपने-अपने कार्यों में पूर्ण स्वतन्त्र थे और अपने यहाँ के निवासियों के कल्याण के कार्य किया करते थे। आजकल के वर्गवादी जिस समाज के निर्माण का आदर्श दुनिया के सामने रखते हैं उससे कहीं बढ़कर यह प्राचीन भारतीय समाज था।

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