सच्चिदानंद

हमारा मूल रूप, हमारा 'होना'
सत चित आनंद स्वरूप है।यही
परम शक्ति है।यह अखंड और सर्वव्यापी. है।यह देह,अंत:करण उत्पन्न करके अपने एक खंड का तादात्म्य उससे करा देती है।यह तादात्म्य जीवात्मा है जिसमें पुरुष और प्रकृति दोनों मौजूद हैं।
अगर अपने मूल स्वरूप का पता चल जाय तो अखंड शांत स्थिति होती है।पता नहीं है तो स्वयं के सच्चिदानंद होने पर भी देह,अंत:करण का उत्पात सहना पडता है।जीव का देह,अंत:करण(मन बुद्धि चित्त अहंकार)से तादात्म्य होने की वजह से वह कार्य-कारण मे बंट जाता है।ये कारण है पूर्व कर्मों से संचित हुई वृत्तियां।ये सुख रुप भी हो सकती हैं और दुखरुप भी।सुखरुप सहन हो जाता है,दुखरुप सहन नहीं होता।इसमें डर,भय,शंका, संदेह की वृत्ति यां तो साक्षात नर्क ही खडा कर देती हैं, असहनीय यातना होती है इनसे।फिर भी एक बडी राहत की बात है इनके कारण बाहर नहीं, हमारे भीतर हैं।बाहर निमित्त मान सकते हैं।वैसे तो निमित्त भी नहीं लेकिन कुछ समय ऐसा मान सकते हैं ताकि हमारी आंतरिक व्यवस्था की समझ मे प्रवेश संभव हो।अपना कारण जानना किसी वरदान से कम नहीं।तब हमारा पूरा ध्यान हम पर आ जाता है।अब हम हैं और हमारी ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, क्षोभ, घृणा या डरभय आदि वृत्तियां।हम अपनी प्रयोग शाला मे दाखिल हो जाते हैं-बाहरी कारणों से फुरसत मिले तो।चित्त दो जगह नहीं रह सकता।चित्त हमेशा सत्य को जानना पसंद करेगा।वह जानबूझकर असत्य का पक्ष नहीं लेगा जब उसके स्वार्थ का प्रश्न बेहद गंभीर हो।वह राहत चाहेगा।उसकी मदद आध्यात्मिक गुरुओं ने हमेशा की है।ये गुरु भी संसार और साधना के कष्ट से गुजरे हैं।इनकी मदद परम शक्ति ने की है।कुछ साधकों को बहुत ज्यादा समय लगता है,कुछ साधकों को कम समय लगता है।वे ही अपने अनुभवों से हमें लाभान्वित कर सकते हैं।उनसे कितने लोग लाभ उठा पाते हैं यह अलग बात है।लेकिन जिज्ञासु और समाधान कर्ता शुरू से होते आये हैं।ये ईश्वरीय व्यवस्था है।जिस परम शक्ति ने पुरुष और प्रकृति के तादात्म्य की समस्या खडी की है वही उससे निकलने का रास्ता भी बताती है।
हम चेतनस्वरुप हैं तथा देह,अंत:करण के साक्षी हैं।तादात्म्य होने से मानो हम स्वयं देह,अंत:करण(मन बु द्धि चित्त अहंकार)बन जाते हैं या मान लेते हैं।यह मानना वैसा मानना नहीं है।हमें सचमुच लगता है कि हम देह,अंत:करण ही हैं।इससे अलग हमारा कोई शुद्ध स्वरूप भी है इसका पता ही नहीं लगता।यह अद्भुत बात है कि हमारा
यह 'होना'ही इन सब बखेडों का आधार है अर्थात हम तो जहां हैं सदैव वहीं है।फर्क यह पडता है कि देह,अंत:करण से तादात्म्य के कारण हम बहिर्मुखी हो जाते हैं।यही नहीं हम खुद से दूर भी चले जाते हैं।हमारे बाहरी रागद्वेष हमें खुद से दूर रखते हैं बाहरी व्यक्ति घटना परिस्थिति पर निर्भर करके।अब अपने मूल आधार स्वरूप की ओर लौटना कैसे हो?गीता ने इसके लिये अभ्यास, वैराग्य का रास्ता बताया, बिना रागद्वेष के वश मे हुए।यह रागद्वेष के वश मे होना अभ्यास और वैराग्य को सफल नहीं होने देता।हम बाहर व्यक्ति घटना परिस्थिति से तो रागद्वेष करते ही हैं जब हम अंतर्मुखी होकर अपने भीतर आते हैं तब वहां सात्विक राजसी तामसी वृत्तियों को देखकर उनसे भी रागद्वेष करने लगते हैं।एक जाल से निकलकर दूसरे जाल मे फंस गये ऐसी बात है।बाहरी कारण नहीं है यह बाहरी जाल से निकलना हुआ।आंतरिक कारण नहीं है।साक्षी भाव से संचित वृत्तियों को न देख पाना,उनसे भी रागद्वेष करना-इसे समझना यह आंतरिक जाल से निकलना हुआ।हम भी रहें,ये वृत्ति यां भी रहें-यह साक्षी भाव है।न इन वृत्ति यों का समर्थन करें, न विरोध, न पलायन,न नामकरण कि यह घृणा है,यह द्वेष है,यह क्रोध, क्षोभ है आदि आदि।नामकरण से फिर साथ रहना संभव नहीं होता।हम प्रेम,शांति, सद्भाव आदि के साथ रहना चाहते हैं जो नहीं हैं।जो नहीं हैं उनके साथ नहीं रहा जा सकता,जो है उसीके साथ रहा जा सकता है चाहे वह कितना भी कष्ट कर हो।अपने साथ रहना इसीलिये कठिन है।साक्षी भाव इसे आसान कर देता है।साक्षी का काम कर्ता भाव से करना और भोक्ता भाव से भुगतना नहीं है अपितु अलग खडे रहकर इन भीतर से उठती वृत्तियों को देखना और पहचानना है ताकि हम आवरण और विक्षेप से ग्रस्त हुए बिना,स्वस्थता पूर्वक रह सकें।इस स्वस्थता मे जो शांति है,सुख है,सद्भाव है वह सापेक्ष नहीं है,स्वतंत्र है।यही रचनात्मक है।इसे दूसरों को बदलने के लिये संघर्ष नहीं करना पडता।यह वह आधार भूत अवस्था है जिसके संपर्क मे आने वाले स्वतः बदलते हैं।लोग क्यों नहीं सुधरते?क्योंकि उनका आग्रह होता है कि पहले तुम सुधरो तो हम सुधरें।
कारण ज्यादा बडा नहीं है।खुद का सुधरना कठिन है इसलिए दूसरे पर निर्भरता है।दूसरा भी इस समस्या से ग्रस्त है इसलिए बात जहाँ की तहां रह जाती है।जो इसका बीडा उठा लेते हैं वे अपने और दूसरों के लिये कल्याणकारी सिद्ध होते हैं।
इस संदर्भ मे गीता ने कहा-यह जीवात्मा आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु।हम कब तक नहीं बदलेंगे और अपने और दूसरों के शत्रु बने रहेंगे यह समझने की बात है।
जो अपना शत्रु है वह चाहता है दूसरे उसके मित्र बनें पर आत्मशत्रु के सब शत्रु बन जाते हैं।ऐसा आदमी खुद को पसंद नहीं करता।जो खुद को पसंद नहीं करता उसे कोई पसंद नहीं करता।इसका मतलब यह नहीं कि खुद को पसंद करने वाले के सब मित्र बन जाते हैं।ऐसे तो सब लोग खुद को पसंद करते ही हैं यह वह बात नहीं।यह वस्तुतः सही अर्थ मे अपना परम हितैषी मित्र होने की बात है।यह आत्मा का मित्र होना है।अपने को पसंद करके आदमी अपने अहंकार का मित्र बन रहा है या आत्मा का-यह उसे समझना होगा।अपने को पसंद करनेवाले अहंकारी लोग आपस मे लडते हैं, आत्ममित्र नहीं लडते।वे सबको आत्ममित्र होने के परम कार्य मे सहायता करते हैं।क्यों न करें, मूल मे एक ही जो है-
*एकोहं बहुस्याम्।*


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