*ओ३म्*
*तस्मिन् पुरवरे ह्रष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः ।*
*नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः ।।*
*अर्थात्―*
उस श्रेष्ठ नगरी में सभी मनुष्य प्रसन्न,धर्मात्मा,महाविद्वान,अपने-अपने धन से सन्तुष्ट,अलोभी और सत्यवक्ता थे।
*नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत् तस्मिन्पुरोत्तमे ।*
*कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थौऽ गवाश्वधनधान्यवान् ।।*
*अर्थात्―* वहाँ कोई ऐसा गृहस्थी न था जो थोड़े संग्रह वाला हो(प्रत्येक के पास पर्याप्त धन था),कोई ऐसा गृहस्थी नहीं था,जिसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होती हो और ऐसा भी कोई घर नहीं था जो गौ,अश्व और धन-धान्य से भरपूर न हो।
*कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।*
*द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः ।।*
*अर्थात्―*अयोध्या में कोई पुरुष ऐसा न था जो कामासक्त हो,कोई व्यक्ति ऐसा न था जो कंजूस हो,दान न देता हो।क्रूर,मूर्ख और नास्तिक(ईश्वर,वेद और पुनर्जन्म में विश्वास न रखने वाला) व्यक्ति तो अयोध्या में कोई दिखायी ही न देता था।
*सर्वै नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः ।*
*मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः ।।*
*अर्थात्-* सभी स्त्री पुरुष धर्मात्मा,इन्द्रियों को वश में रखने वाले,सदा प्रसन्न रहने वाले तथा शील और सदाचार की दृष्टि से महर्षियों के समान निर्मल थे।
*नाकुण्डली नामुकटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान् ।*
*नामृष्टो न नलिप्तान्गो नासुगन्धश्च विद्यते ।।*
*अर्थात्*―अयोध्या में कोई भी व्यक्ति ऐसा न था जो कानों में कुण्डल,सिर पर मुकुट और गले में माला धारण न करता हो।अल्पभोगी,मैले अंगों वाला,चन्दन,इत्र,तेल,फुलैल न लगाने वाला भी वहाँ कोई नहीं था।
*नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः ।*
*कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः ।।*
*अर्थात्―*
अयोध्या में कोई मनुष्य ऐसा न था जो प्रतिदिन अग्निहोत्र न करता हो,जो क्षुद्र-ह्रदय हो,कोई चोर नहीं था और न ही कोई वर्णसंकर था।
*नाषडन्गविदत्रास्ति नाव्रतो नासहस्रदः ।*
*न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन ।।*
*अर्थात्―*
अयोध्या में कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं था जो छह अङ्गों-(शिक्षा,कल्प,ज्योतिष,व्याकरण,निरुक्त और छन्द)-सहित वेदों को न जानता हो।जो उत्तम व्रतों से रहित हो,जो महाविद्वान न हो,जो निर्धन हो,जिसे शारीरिक या मानसिक पीड़ा हो-ऐसा भी कोई न था।
*दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः ।*
*सहिताः पुत्रपौत्रैश्च नित्यं स्त्रीभिः पुरोत्तमे ।।*
*अर्थात्* अयोध्या में सभी निवासी दीर्घ-जीवी,धर्म और सत्य का आश्रय लेने वाले,पुत्र,पौत्र और स्त्रियों सहित उस नगर में रहते थे।
--[वा० रामा० बाल० ६।६-१०,१२,१५,१८
महाराज दशरथ और श्रीराम की आदर्श राज्य-व्यवस्था आगे भी पर्याप्त समय तक चलती रही।
महाराज अश्वपति ने अपने राज्य के सम्बन्ध में गर्वपूर्वक घोषणा की थी--
*न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।*
*नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।।--(छन्दोग्य० ५/११/५)*
मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है,कोई कन्जूस नहीं है,कोई शराबी नहीं है,कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो प्रतिदिन अग्निहोत्र न करता हो।कोई मूर्ख नहीं है,कोई व्यभिचारी पुरुष नहीं है,फिर भला व्यभिचारिणी स्त्री तो हो ही कैसे सकती है?
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