ऋषि वाचस्पति का नाम शायद ही कुछ लोगों ने सुना होगा या याद होगा। पर उनके द्वारा रचित "भामति" एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। ब्रह्मसूत्र की इतनी अद्भुत और सटीक टीका और किसी ने नहीं लिखी। हुआ यूं कि एक दिन गुरुदेव श्री जगदीश प्रसाद पाण्डेय जी के पुस्तकालय में ऋषि वाचस्पति रचित ब्रह्मसूत्र की टीका "भामति" पर नज़र पड़ी। उत्साह के साथ शीघ्र ही पूरा ग्रंथ पढ़ लिया। बहुत ही आसान ढंग से ऋषि वाचस्पति ने ब्रह्मसूत्र को समझाया है। इस टीका की सबसे अद्भुत बात यह है कि इस के शीर्षक "भामति" शब्द का न तो पूरी टीका में एक भी बार प्रयोग किया गया है और न ही इस शब्द का ब्रह्मसूत्र से कोई संबंध है। मन मे बड़ी जिज्ञासा थी कि ऋषि वाचस्पति ने इस टीका का नाम "भामति" क्यों रखा सो गुरुदेव-श्री से इसका समाधान पूछा।
गुरुदेव श्री जे पी पाण्डेय जी ने इसके पीछे छिपे जिस कारण का वर्णन किया वो प्रेम और समपर्ण की अद्भुत मिशाल है। आप भी जानिए वह अद्भुत कारण- ऋषि वाचस्पति मिश्र को बचपन से ही धर्म मे विशेष आसक्ति थी। किशोरावस्था आते आते उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखना आरम्भ कर दिया। ऐसे में ही एक दिन वाचस्पति के पिता ने उनसे विवाह का आग्रह किया। वाचस्पति लगे थे परमात्मा की खोज में सो कुछ समझ में न आया इसलिए उन्होंने हाँ भर दी। उन्होंने ने सोचा पिताजी जो भी करेंगे, मेरे हितार्थ ही होगा। विवाह की तैयारियां हुई, फिर जब वाचस्पति को घोड़े पर बैठाया जाने लगा, तब उन्होंने पूछा- मुझे कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा- विवाह करने चल रहे हैं। उसने सोचा, जब बिना जाने हां भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। पत्नी घर में आ गई और वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी कैसे! उन्होंने अनजाने में हां भरी थी और विवाह किया था। सब सांसारिक बातें भूल वाचस्पति ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखने में ही लगे रहे।
बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उनकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेते तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक वाचस्पति को पता ही नहीं चला कि उसकी पत्नी भी है। पत्नी ने भी कोई प्रयास नहीं किया कि उन्हें पता चल जाए बल्कि अपने आप को छुपाए रखा ताकि उनके काम में बाधा न पड़े।
बारह वर्ष पश्चात पूर्णिमा की मध्यरात्रि में वाचस्पति का काम पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने बिस्तर तक का रास्ता दिखाने के लिए दीया उठाया। बारह वर्ष में आज पहली बार वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। बारह वर्ष बाद काम समाप्त हुआ था अब मन बंधा नहीं था किसी काम से। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। वाचस्पति ने अचरज से पीछे पलट कर देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहां से आई? द्वार मकान के बंद हैं, कहां पहुंचना है तुझे, मैं पहुंचा दूं!
उसकी पत्नी ने कहा- काम की अधिकता के कारण आप शायद भूल गए होंगे मुझे। बारह वर्षों तक आप काम में व्यस्त थे इसलिए यह संभव भी नहीं है कि आपको याद रहे। पर याद करने की कोशिश कीजिये बारह वर्ष पहले आपने मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार किया था, तब से मैं यहीं हू्ँ।
ऋषि वाचस्पति को सब याद आ गया, वे रोने लगे। बहुत देर तक रोने के पश्चात बोले- बहुत देर हो गई, मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है तो मैं जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों न कहा? थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।
वाचस्पति की आंखों में आँसू देख कर, पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा और उसने कहा- जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आँसुओं में मिल गया। अब मुझे कुछ और नही चाहिए। आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति जैसे उच्च कोटि ऋषि की आंख में मेरे लिए आंसू हैं! बस, बहुत मुझे मिल गया है।
वाचस्पति ने वह ग्रंथ उठाया और उस पर शीर्षक लिखा *भामति*। यह उसकी पत्नी का नाम था। वाचस्पति बोले- मैं तेरे लिए और कुछ नहीं कर सकता, चाहे लोग मुझे भूल जाएं पर तुझे न भूलें इसलिए "भामति" नाम देता हूं अपने ग्रंथ को।
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