मोक्ष की अवधि व प्राप्ति का पूरा ज्ञान सत्यार्थ प्रकाश में निहित


ईश्वर ने मनुष्य व प्राणियों के जो शरीर बनाये हैं वह अन्नमय शरीर हैं। यह शरीर सीमित अवधि तक ही जीवित रह सकते हैं। यह अनित्य वा मरणधर्मा होते हैं। जिस प्रकार एक भवन पुराना होने पर कमजोर होकर गिर जाता है, लगभग उसी प्रकार से मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर भी शैशवास्था के बाद वृद्धि को प्राप्त होकर युवावस्था में पूर्ण विकास को प्राप्त होते हैं। इस युवावस्था में शारीरिक शक्तियां अपने चरम पर होती हैं। कुछ काल तक यह अवस्था बनी रहती है और फिर वृद्धावस्था आरम्भ हो जाती है। वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर मनुष्य का शरीर जीर्ण होने लगता है और लगभग १०० वर्ष से पूर्व ही अधिंकाश मनुष्यों का शरीर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सृष्टि का एक प्रमुख नियम यह है कि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश भी अवश्य होता है। उत्पत्ति अभाव से नहीं होती और इसी प्रकार नाश होने पर भी किसी भौतिक व नित्य चेतन व जड़ पदार्थ का अभाव नहीं होता। वह कारण अवस्था के बाद की परमाणु व अणु के रूपों में विद्यमान रहते हैं। जीवात्मा शरीर में रहे या मृत्यु होने पर शरीर से निकल जाये, यह अपनी मूल अवस्था जो विकाररहित होती है, में ही रहता है। सृष्टि की आदि में ईश्वर मूल प्रकृति में विकार उत्पन्न कर सभी जीवात्माओं के लिए सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है। सभी जन्मों में साथ रहता है और सभी योनियों में मृत्यु होने पर भी आत्मा के साथ स्थूल शरीर से निकल कर ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार नये शरीर में चला जाता है। इससे ज्ञात होता है कि जन्म व मरण अर्थात् जीवन व मृत्यु का कारण हमारे शुभ व अशुभ कर्म होते हैं जिन्हें पुण्य व पाप कर्म भी कहा जाता है।

मृत्यु के बारे में हमने यह जाना है कि शरीर के दुर्बल व रोगी होने पर शरीर की मृत्यु होती है। मृत्यु का अर्थ होता है कि इस शरीर का जीवात्मा जिसे विज्ञान की भाषा में मनुष्य जीवन का साफ्टवेयर कह सकते हैं, शरीर से निकल जाता है और हार्डवेयर के रूप में शरीर यहीं रह जाता है जिसका दाह संस्कार कर दिया जाता है। एक प्रश्न यह भी है कि क्या हम मृत्यु और जन्म के चक्र से छूट सकते हैं। इसका उत्तर हां में हैं। वेद और शास्त्र इसका समाधान यह बतातें हैं कि यदि हम अशुभ कर्म न करें, पूर्व कृत अशुभ व पाप कर्मों का भोग कर लें और इस जीवन में ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लें तो हमारा जन्म व मरण के चक्र से अवकाश होकर हमें मोक्ष व मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। मुक्ति की अवधि ईश्वर के एक वर्ष अर्थात् ३१ , १० , ४०  अरब ( ३१ नील- १० खरब- ४० अरब ) वर्षों के बराबर होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख भोगता है। मोक्ष प्राप्ति का पूरा ज्ञान सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास को पढ़कर किया जा सकता है। सभी मनुष्यों को मोक्ष के विषय में अवश्य जानना चाहिये और इसके लिए प्रामाणिक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ही है या वह ग्रन्थ हैं जहां से सत्यार्थप्रकाश की सामग्री का संकलन ऋषि दयानन्द जी ने किया था। प्राचीन काल में हमारे समस्त ऋषि-मुनि, ज्ञानी व विद्वान सभी मोक्ष को सिद्ध करने के लिए वेद एवं वैदिक शास्त्रों के अनुसार साधना करते थे। अब भी कोई करेगा तो वह इस जन्म व कुछ जन्मों में मोक्ष को अवश्य प्राप्त कर सकता है क्योंकि वेद के ऋषियों ने जो सिद्धान्त दिये हैं वह उनके गहन तप, स्वाध्याय, साधना एवं ईश्वर साक्षात्कार के अनुभव के आधार पर हैं। ऋषि दयानन्द में यह सभी गुण विद्यमान थे, अतः उनके सभी सिद्धान्त भी प्रामाणिक हैं।

वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन करने के बाद यह तथ्य सामने आता है कि हम इस जन्म से पूर्व पिछले जन्म में कहीं मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उस जन्म व उससे पूर्व कर्मों के भोग के लिए हमारा यह जन्म हुआ था। इस जन्म में भी वृद्धावस्था आदि में हमारी मृत्यु अवश्य होगी जिसे हम वेद आदि ग्रन्थों के अध्ययन से जानकर मृत्यु के भय से मुक्त हो सकते हैं। वेद स्वाध्याय, यज्ञ, दान, सेवा, साधना व उपासना से हम जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर व मोक्ष को प्राप्त होकर अभय व निर्द्वन्द हो सकते हैं। आईये, ईग्श्वरीय निर्भ्रान्त ज्ञान वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषिकृत ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें। उनमें निहित ज्ञान को प्राप्त कर साधना करें और मोक्ष प्राप्ति के साधनों को अपनायें। मृत्यु के भय से मुक्त होकर हम अन्यों में भी जीवन व मृत्यु के रहस्य का प्रचार कर उन्हें भी अभय प्रदान करें।

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3 Comments

  1. We are urgently in need of Kidney donors with the sum of $500,000.00 USD,(3 crore) All donors are to reply via Email: healthc976@gmail.com
    Call or whatsapp +91 9945317569

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  3. मोक्ष की अवधि का वर्णन किसी भी ग्रंथ में नहीं है। तो फिर सिर्फ एक ही पुस्तक में लिखी हुई इस बात का विश्वास नहीं किया जा सकता। अगर किसी वेद में है तो उस वेद का नाम और श्लोक संख्या बताएं।

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