एकलव्य के अंगूठे का लोचा बड़ा है


*यह आलेख एकलव्य के अंगूठे काटे जाने की निष्पक्ष समीक्षा है कि यह प्रसंग कितना तर्कसंगत और कितना असंगत है।*

आर्यपुत्र निगमेन्द्र

▪ *महाभारत आदि पर्व के 131 अध्याय के 56 से 70 श्लोक में द्रोण एकलव्य के अंगूठे का प्रसंग मिलता है।*

▪ *एक अन्य महाभारत पुस्तक में द्रोण पर्व के अध्याय 181 में 47 श्लोकों में एकलव्य द्रोण का प्रसंग बताया गया है पाठक द्वारा।*

यही तो लोचा है। महाभारत ग्रंथ में द्रोण एकलव्य का प्रसंग दो अलग महाभारत पुस्तक में अलग अलग पर्व और अलग अध्याय का होना महाभारत के विक्षेपित होने का स्पष्ट संकेत दे रहा है। अन्यथा दोनो महाभारत पुस्तक में पर्व एक, अध्याय संख्या और श्लोक का क्रम संख्या समान होनी चाहिए, अलग अलग नही।

*📙इन विक्षेपित पुस्तक में एकलव्य प्रसंग*
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

*राजपुत्र थे एकलव्य :* महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। एक मान्यता अनुसार वे श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था जिसे उन्होंने निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था।

उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के समान ही थी। निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। द्रोणभक्त एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रानी सुलेखा था।

उल्लेखनी है कि निषाद नामक समुदाय आज भी भारत में निवास करता है। एकलव्य न तो भील थे और न ही आदिवासी, वे निषाद समुदाय के थे। गौरतलब है कि महाभारत लिखने वाले वेद व्यास ब्राह्मण होने से पूर्व शुद्र अर्थात निषाद थे।

*एकलव्य का जिस तरह चित्रण किया जाता है वह उस तरह के नहीं थे।* वे एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम 'एकलव्य' रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।

एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सीखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं।

⚜ *एकलव्य-द्रोण संवाद :* उस समय धनुर्विद्या में गुरु द्रोण की ख्याति थी। एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास आकर बोला- 'गुरुदेव, मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें!' तब गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हुआ क्योंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दे दिया था कि वे केवल कौरव कुल के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और एकलव्य राजकुमार तो थे लेकिन कौरव कुल से नहीं थे। अतः उसे धनुर्विद्या कैसे सिखाऊं?

*अतः द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा- 'मैं विवश हूं तुझे धनुर्विद्या नहीं सिखा सकूंगा।'*

एकलव्य घर से निश्चय करके निकला था कि वह केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाएगा। द्रोण की ओर से इंनकार करने के बाद हिरण्यधनु तो वापिस अपने राज्य लौट आए लेकिन एकलव्य को द्रोण के सेवक के तौर पर उन्हीं के पास छोड़ गए। द्रोण की ओर से दीक्षा देने की बात नकार देने के बावजूद एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी, वह सेवकों की भांति उनके साथ रहने लगा। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को रहने के लिए एक झोपड़ी दिलवा दी। एकलव्य का काम बस इतना होता था कि जब सभी राजकुमार बाण विद्या का अभ्यास कर चले जाएं तब वह सभी बाणों को उठाकर वापस तर्कश में डालकर रख दें।

*जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को अस्त्र चलाना सिखाते थे तब एकलव्य भी वहीं छिपकर द्रोण की हर बात, हर सीख को सुनता था। अपने राजकुमार होने के बावजूद एकलव्य द्रोण के पास एक सेवक बनकर रह रहा था। एकलव्य ने अपने खाली समय में द्रोण की सीख के अनुसार अरण्य में रहते हुए ही एकांत में तीर चलाना सीखता था।* (इस प्रकार छल से एकलव्य ने द्रोण से विद्या सीखी)

*जब पता चला द्रोणाचार्य को:* एक दिन अभ्यास जल्दी समाप्त हो जाने के कारण कौरववंशी सभी राजकुमार समय से पहले ही लौट गए। ऐसे में एकलव्य को धनुष चलाने का एक अदद मौका मिल गया। लेकिन अफसोस उनके अचूक निशाने को दुर्योधन ने देख लिया और द्रोणाचार्य को इस बात की जानकारी दी।

द्रोणाचार्य ने एकलव्य को वहां से चले जाने को कहा। हताश-निराश एकलव्य अपने महल की ओर रुख कर गया, लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि वह घर जाकर क्या करेगा, इसलिए बीच में ही एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया। उसने आदिवासी सरदार को अपना परिचय दिया और कहा कि वह यहां रहकर धनुष विद्या का अभ्यास करना चाहता है। सरदार ने प्रसन्नतापूर्वक एकलव्य को अनुमति दे दी। आदिवासियों या भीलों के बीच रहने के कारण एकलव्य को शिकारी या भील जाति का मान लिया गया।

🐚 *इस संवाद को इस तरह समझे..*
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

*एकलव्य द्रोणाचार्य संवाद:*

द्रोणाचार्य:- किसके शिष्य हो?

एकलव्य:- गुरु द्रोणाचार्य का।

द्रोणाचार्य:- किन्तु मेने तो तुम्हें कोई शिक्षा नहीं दी।

एकलव्य:- किन्तु मेने तो आप ही को गुरु माना है।

द्रोणाचार्य:- किसके पुत्र हो?

एकलव्य:- निषात् राज भिल्ल राजा का।

द्रोणाचार्य:- कौन वह जरासंघ की सेना का सेनापति?

एकलव्य:- जी हां गुरुदेव।

द्रोणाचार्य:- इतनी योग्यता प्राप्ति के बाद तुम कहां जाओगे?

एकलव्य:- मैं अपने पिता के साथ जरासंघ की सेना का नेतृत्व करूंगा। (सर्वप्रथम पांडवों की ओर से युद्ध मे भाग लेने की इच्छा प्रकट की थी )

द्रोणाचार्य:- तुम ये जानते हो जरासंघ मानवता का शत्रु है? नर पिशाच है ?

एकलव्य:- जी

Post a Comment

0 Comments