*गणित-विद्या का मूल वेदों में विद्यमान है. Root of Math in VEDAS

*ओ३म्*

आर्यभट ने शून्य को Invention (आविष्कार) नहीं, re-discover किया. आर्यभट को हुए केवल 1500 वर्ष हुए, उससे पूर्व हुए अनेक ग्रन्थों में दश-गुणोत्तर संख्याओं (multiple of Ten) का वर्णन हो चुका था, महाभारत युद्ध को हुए अब 5155 वर्ष बीत चुके हैं. *सूर्य-सिद्धान्त* जो की गणित-ज्योतिष (Astronomy) का ग्रन्थ है, वह लाखों वर्ष पुराना है. वर्त्तमान सृष्टि में, वेद 1 अरब 96 करोड वर्षों से प्रकाशित हैं. वेदों में जो गणित विद्या है, उसके आधार पर ही गणित के अन्य ग्रन्थों की रचना प्राचीन ऋषियों ने की.

_संस्कृत_ का *उन* शब्द, _अरबी व ग्रीक_ में बदल कर *वन One* हुआ। संस्कृत का *शून्य* शब्द, _अरबी_ में *सिफर* हुआ, _ग्रीक_ में *जीफर* और _अंग्रेजी_ में *जीरो* हो गया। इस प्रकार भारतीय अंक दुनिया में छाये।

संस्कृत का *जीवा*, अरबी में *ज़ेबा* बना, जेब(pocket) यूरोपियन लोग छाती पर बनाते थे, तो ग्रीक लोगों ने इसे *सिनुस* कहा, और अंग्रेजी में Sine बन गया।

*स्वायम्भुव-मन्वन्तर* के प्रारम्भ में (1,96,08,53,117 वर्ष पूर्व), तिब्बत के मानसरोवर में मनुष्योत्पत्ति हुई थी,  मनुष्यों की उत्पत्ति के बाद परमात्मा ने, ऋषियों के हृदयों में, समाधि अवस्था में, वेदों का प्रकाश किया. *विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं, इस ब्रह्माण्ड में जितनी भी सत्य-विद्यायें हैं, उनका मूल-रूप वेदों में विद्यमान है।* दाशमिक पद्धति (Decimal system) में 10 संख्याएँ ०, १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९ होती हैं, इनके combination से अनन्त संख्याये बन सकती हैं. इन दश अंकों को देवनागरी लिपि में इस प्रकार से लिखा जाता है, की प्रत्येक अंक में शून्य विद्यमान रहता है. आप इन अंकों की आकृति में *शून्य* को स्पष्ट देख सकते हैं.
अंकों की आकृति के विषय में विस्तार से वर्णन "वैदिक-सम्पत्ति" के पृष्ठ-287 पर पढा जा सकता है.

*वैदिक सम्पत्ति, भाग-२* [54 MB]

संख्याओं का क्रम से विवेचन _यजुर्वेद अध्याय-39, मन्त्र-6_ में मिलता है -
*सविता प्रथमेऽहन् अग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशमंऽइन्द्र एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे। (यजुर्वेद-39-6)*।
*भावार्थ:* _मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म न्यूनतम १२ दिनों बाद होता है।_ इसमें विशेषता है, अंक *एक से बारह* तक क्रम से दिए हैं।

आर्यभट से पूर्व प्राचीन गणितज्ञों ने भी शून्य का उपयोग संख्याओं में किया था. उनमें कुछ गणितज्ञों के नाम:
*बौधायन* (2817 वर्ष पूर्व)
*पिङ्गल* (2517 वर्ष पूर्व)
*कात्यायन* (2317 वर्ष पूर्व)

गणना की दृष्टि से प्राचीन *ग्रीकों* को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या *मीरीयड (10,000)* था। और *रोमनों* को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या 1000 थी। जबकि भारतवर्ष में कई प्रकार की गणनाएं प्रचलित थीं। गणना की ये पद्धतियां स्वतंत्र थीं, तथा वैदिक, जैन, बौद्ध ग्रंथों में वर्णित इन पद्धतियों के कुछ अंकों में नाम की समानता थी परन्तु उनकी संख्या राशि में अन्तर आता था।

*प्रथम दशगुणोत्तर संख्या* - अर्थात् बाद वाली संख्या पहले से दस गुना अधिक। इस संदर्भ में *यजुर्वेद* के *17वें अध्याय* के *दूसरे मंत्र* में उल्लेख आता है। इस मन्त्र में Bricks के example से गणित-विद्या का उपदेश है. जिसमें संख्या का क्रम निम्नानुसार है- _*एक, दश, शत, सहरुा, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद्, न्यर्बुद्, समुद्र, मध्य, अन्त और परार्द्ध*_। इस प्रकार परार्द्ध का मान हुआ 10^12 यानी दस खरब।

*द्वितीय शतगुणोत्तर संख्या* -अर्थात् बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से सौ गुना अधिक। इस संदर्भ में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के *"ललित विस्तर"* नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्व का वार्तालाप है, जिसमें वह पूछता है कि एक कोटि के बाद की संख्या कौन-सी है? इसके उत्तर में बोधिसत्व कोटि यानी 107 के आगे की शतगुणोत्तर संख्या का वर्णन करते हैं।
100 कोटि, अयुत, नियुत, कंकर, विवर, क्षोम्य, निवाह, उत्संग, बहुल, नागबल, तितिलम्ब, व्यवस्थान प्रज्ञप्ति, हेतुशील, करहू, हेत्विन्द्रिय, समाप्तलम्भ, गणनागति, निखध, मुद्राबाल, सर्वबल, विषज्ञागति, सर्वज्ञ, विभुतंगमा, और तल्लक्षणा।

अर्थात् तल्लक्षणा का मान है 10^53 यानी एक के ऊपर 53 शून्य के बराबर का अंक।

*तृतीय कोटि गुणोत्तर संख्या* -कात्यायन के पाली व्याकरण के सूत्र 51, 52 में कोटि गुणोत्तर संख्या का उल्लेख है। अर्थात् बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से करोड़ गुना अधिक। इस संदर्भ में जैन ग्रंथ " *अनुयोगद्वार* " में वर्णन आता है। यह संख्या निम्न प्रकार है: _कोटि-कोटि, पकोटी, कोट्यपकोटि, नहुत, निन्नहुत,अक्खोभिनि, बिन्दु, अब्बुद, निरष्बुद, अहह, अबब, अतत, सोगन्धिक, उप्पल कुमुद, पुण्डरीक, पदुम, कथान, महाकथान और असंख्येय_  असंख्येय का मान है 10^140 यानी एक के ऊपर 140 शून्य वाली संख्या।
उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में अंक विद्या कितनी विकसित थी, जबकि विश्व 10,000 से अधिक संख्या नहीं जानता था।
उपर्युक्त संदर्भ विभूति भूषण दत्त और अवधेश नारायण सिंह द्वारा लिखित पुस्तक *हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास* में विस्तार के साथ दिए गए हैं।

*आगे चलकर देश में आर्यभट्ट (476 ईस्वी), ब्रह्मगुप्त (598 ईस्वी), भास्कराचार्य प्रथम(600 ईस्वी), भास्कराचार्य द्वितीय(1114 ईस्वी),  श्रीधर (750 ईस्वी) आदि अनेक गणितज्ञ हुए।*

उनमें भास्कराचार्य ने 1150 ई. में *"सिद्धान्त शिरोमणि"* नामक ग्रंथ लिखा। इस महान ग्रंथ के चार भाग हैं। (1) लीलावती(अंक-गणित) (2) बीज-गणित (3) गोलाध्याय (Solid Geometry) (4) ग्रह गणित।

श्री गुणाकर मुले अपनी पुस्तक "भास्कराचार्य" में लिखते हैं कि भास्कराचार्य ने गणित के मूल आठ कार्य माने हैं-
(1) संकलन (जोड़) (2) व्यवकलन (घटाना) (3) गुणन (गुणा करना) (4) भाग (भाग करना) (5) वर्ग (वर्ग करना) (6) वर्ग मूल (वर्ग मूल निकालना) (7) घन (घन करना) (8) घन मूल (घन मूल निकालना)। ये सभी गणितीय क्रियाएं हजारों वर्षों से देश में प्रचलित रहीं। लेकिन भास्कराचार्य लीलावती को एक अदभुत बात बताते हैं कि "इन सभी परिक्रमों के मूल में दो ही मूल परिकर्म हैं- वृद्धि और ह्रास।" जोड़ वृद्धि है, घटाना ह्रास है। इन्हीं दो मूल क्रियाओं में संपूर्ण गणित शास्त्र व्याप्त है।"

बीज गणित-बीज गणित की उत्पत्ति का केन्द्र भी भारत ही रहा है। इसे *अव्यक्त-गणित* या *बीज गणित* कहा जाता था। अरबी विद्वान *मूसा अल खवारिज्मी* ने 9वीं सदी में भारत आकर यह विद्या सीखी और एक पुस्तक "अलीजेब ओयल मुकाबिला" लिखी। वहां से यह ज्ञान यूरोप पहुंचा।

भारत वर्ष में पूर्व काल में आपस्तम्ब, बोधायन, कात्यायन तथा बाद में ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि गणितज्ञों ने इस पर काम किया। भास्कराचार्य कहते हैं, बीज गणित- का अर्थ है अव्यक्त गणित, इस अव्यक्त बीज का आदिकारण होता है, व्यक्त। इसलिए सबसे पहले "लीलावती" में इस व्यक्त गणित अंकगणित का चर्चा की। बीजगणित में भास्कराचार्य शून्य और अनंत की चर्चा करते हैं।

*वधा दौ वियत् खं खेनधाते, खहारो भवेत् खेन भक्तश्च राशि:।*
अर्थात् यदि शून्य में किसी संख्या का भाग किया जाए या शून्य को किसी संख्या से गुणा किया जाए तो फल शून्य ही आता है। यदि किसी संख्या में शून्य का भाग दिया जाए, तो परिणाम अनन्त आता है।

शून्य और अनंत गणित के दो अनमोल रत्न हैं। रत्न के बिना जीवन चल सकता है, परन्तु शून्य और अनंत के बिना गणित कुछ भी नहीं।

शून्य और अनंत भौतिक जगत में जिनका कहीं भी नाम निशान नहीं, और जो केवल मनुष्य के मस्तिष्क की उपज है, फिर भी वे गणित और विज्ञान के माध्यम से विश्व के कठिन से कठिन रहस्यों को स्पष्ट करते हैं।

*ब्रह्मगुप्त* ने विभिन्न "समीकरण" खोज निकाले। इन्हें ब्रह्मगुप्त ने एक वर्ण, अनेक वर्ण, मध्यमाहरण और मापित नाम दिए। एक वर्ण समीकरण में अज्ञात राशि एक तथा अनेक वर्ण में अज्ञात राशि एक से अधिक होती थी।
रेखा गणित की जन्मस्थली भी भारत ही रहा है। प्राचीन काल से यज्ञों के लिए वेदियां बनती थीं। इनका आधार ज्यामिति या रेखागणित रहता था। पूर्व में *बोधायन* एवं *आपस्तम्ब* ने ईसा से 800 वर्ष पूर्व अपने *शुल्व सूत्रों* में वैदिक यज्ञ हेतु विविध वेदियों के निर्माण हेतु आवश्यक स्थापत्यमान दिए हैं।
किसी त्रिकोण के बराबर वर्ग खींचना, ऐसा वर्ग खींचना जो किसी वर्ग का द्विगुण, त्रिगुण अथवा एक तृतीयांश हो। ऐसा वृत्त बनाना, जिसका क्षेत्र उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के बराबर हो। उपर्युक्त विधियां शुल्व सूत्र में बताई गई हैं।

Wikipedia

*भारतमाता की जय, जय आर्यावर्त्त*

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3 Comments

  1. श्री कृष्ण ने श्री गीता में कहा है, में काल गणनाओं में समय हूं ।

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  2. अभिनंदन जी नमस्कार,

    मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूं । मैं यह खोजना चाहता हूं कि सारा गणित बाई और से लिखने के बजाय दाएं और से लिखा जाए ।

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